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सुबह 5 बजे उठना, दिन में घंटों का अभ्यास, 'वनवास' सहकर इस तरह तैयार होते हैं मुक्केबाज - भिवानी के मुक्केबाज

आखिर भिवानी की धरती में ऐसा क्या खास है जिसकी वजह से ये बॉक्सरों की फैक्ट्री कहलाता है. ये जानने के लिए ईटीवी भारत देश के लिए मुक्केबाजी में पदक जीतने का ख्वाब देख रहे  नन्हें बॉक्सरों के बीच पहुंचा.

struggle of each boxer who fight to medal
बॉक्सिंग नहीं बच्चों का खेल

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Published : Dec 30, 2019, 7:11 PM IST

भिवानी:भिवानी मुक्केबाजों की वो नगरी है, जिसने देश को ओलंपियन मुक्केबाज विजेंद्र सिंह, अखिल कुमार, जितेंद्र कुमार और दिनेश सांगवान जैसे खिलाड़ी दिए हैं और आगे भी ना जाने भिवानी देश को और कितने ऐसे ही मुक्केबाज देगा, लेकिन मुक्केबाज बनना इतना आसान नहीं होता है. कड़ी मेहनत, अनुशासन और अथक संघर्ष ही एक मुक्केबाज को अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक ले जाता है.

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आखिर भिवानी की धरती में ऐसा क्या खास है जिसकी वजह से ये बॉक्सरों की फैक्ट्री कहलाता है. ये जानने के लिए ईटीवी भारत देश के लिए मुक्केबाजी में पदक जीतने का ख्वाब देख रहे नन्हें बॉक्सरों के बीच पहुंचा.

दिन रात एक कर मेहनत कर रहे हैं जतिन
कालुवास गांव के रहने वाले जतिन कुमार यू तो सिर्फ 12 साल के हैं, लेकिन उनमें देश के लिए पदक जीतने का जज्बा कूट कूटकर भरा है. जतिन सुबह और शाम दोनों वक्त साइकिल से बॉक्सिंग अकादमी जाते हैं. करीब तीन घंटे तक कड़ी मेहनत और पसीना बहाते है, ताकि वो भविष्य में भिवानी के ओलंपियन मुक्केबाजों की तर्ज पर अंतर्राष्ट्रीय मुक्केबाज बन सकें.

देश के लिए गोल्ड जीतना है जतिन का सपना
जतिन अभी सिर्फ 12 साल के हैं और जूनियर में उनके भार वर्ग की कोई प्रतियोगिता भी नहीं होती है. फिर भी वो पिछले डेढ़ सालों से निरंतर मेहनत कर रहे हैं.

आसान नहीं मुक्केबाज बनने की राह
ये दिनचर्या अकेले कालुवास गांव के जतिन की नहीं है, बल्कि भिवानी का हर दूसरा बच्चा जतिन की तरह ही कड़ा संघर्ष करता है. ऐसे ही एक और मुक्केबाज 13 साल के चंचल भी हैं. जो कई किलोमीटर तक पैदल जाकर अकादमी में मेहनत करते हैं.

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भिवानी के इन नन्हें मुक्केबाजों का जज्बा दिखाता है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर का मुक्केबाज बनना बच्चों का खेल नहीं है. मुक्केबाज बनने के लिए कड़ी मेहनत, दृढ़ निश्चय और जज्बा जरूरी है और इसी जज्बे के चलते भिवानी को मुक्केबाजों का गढ़ या कहे मिनी क्यूबा कहा जाता है.

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