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महम: खूनी इतिहास वाली वो विधानसभा सीट जो हरियाणा ही नहीं पूरे देश में बहुचर्चित रही, जानिए क्यों?

विधानसभा चुनाव को लेकर पूरा हरियाणा चुनावी रंग में रंग चुका है. टिकट पाने के लिए उम्मीदवारी पेश की जा रही है. जनसभाएं हो रही हैं. ऐसे में हम आपको इस खास पेशकश के जरिए हर विधानसभा सीट के बारे में बता रहे हैं. इस बार हम लेकर आएं हैं हरियाणा की बहुचर्चित महम विधानसभा सीट.

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Published : Aug 28, 2019, 5:51 PM IST

Updated : Aug 28, 2019, 7:06 PM IST

Meham

रोहतक: महम में हुए चुनावों में इतना कुछ घटा है कि लोग आसानी से भूल नहीं सकते और ना ही राजनेता भूलने देना चाहते हैं. रोहतक जिले में आने वाली महम विधानसभा सीट का इतिहास और वर्तमान दोनों राजनीतिक रोमांच से भरे हुए हैं.

जाट बहुल इस सीट पर हरियाणा बनने के बाद से जाट समुदाय से ही विधायक बने हैं. खुद देश के उपप्रधानमंत्री रहे चौधरी देवीलाल भी तीन बार यहां से विधायक बने थे. महम सीट हमेशा से ही राजनीतिक चर्चा का केंद्र और रोमांचक मुकाबलों की गवाह रही है.

फाइल फोटो.

चौधरी देवीलाल ने महम से पहली बार चुनाव 1982 में लड़ा था. देवीलाल ने 1982, 1985 के उपचुनाव और 1987 में महम से जीत दर्ज की और हर बार कांग्रेस के उम्मीदवार को ही हराया. इसके बाद देश के उपप्रधानमंत्री बनने के बाद देवीलाल ने ये सीट छोड़ दी और उनके बेटे ओम प्रकाश चौटाला ने यहां से चुनाव लड़ना चाहा. उस वक्त के ऐतिहासिक घटनाक्रम जिसे आज 'महम कांड' कहा जाता है, की बदौलत उपचुनाव हो ही नहीं पाया और कई लोगों की जान भी गई.

चौधरी देवीलाल.

महम में 1990 का उपचुनाव देश का सबसे खूनी उपचुनाव रहा जिसमें सीएम और उपप्रधानमंत्री की साख दांव पर लगा दी थी. 1989 में ओम प्रकाश चौटाला हरियाणा के मुख्यमंत्री बने. लेकिन वो तब हरियाणा विधानसभा में विधायक नहीं थे तो उन्हें उनके पिता की सीट महम से चुनाव लड़वाना तय हुआ. लगातार तीन बार देवीलाल के जीतने से ये सीट लोकदल का गढ़ बन गई थी तो चौटाला के लिए ये एक सेफ सीट समझी गई थी.

महम चौबीसी का चबूतरा.

वहीं महम चौबीसी (महापंचायत) चाहती थी कि यहां से आनंद सिंह दांगी लड़ें. दांगी देवीलाल के बेहद करीबी थे. देवीलाल के चुनाव कैंपेन का काफी काम दांगी की देख-रेख में होता था. देवीलाल के आशीर्वाद से ही दांगी हरियाणा कर्मचारी चयन आयोग के चेयरमैन बने थे. लेकिन चौटाला अपने पिता की सीट से लड़ने पर अड़े रहे तो दांगी बागी हो गए. दांगी ने महम से निर्दलीय कैंडिडेट के तौर पर पर्चा भर दिया.

फाइल फोटो.

इस उपचुनाव ने उस वक्त राष्ट्रीय स्तर पर कौतुहल और बेचैनी पैदा कर दी थी. फरवरी 1990 में यहां हुए उपचुनावों में इतनी हिंसा हुई थी कि नतीजा तक घोषित नहीं हो पाया था. दोबारा चुनाव कराए गए. फिर हिंसा हुई, चुनाव रद्द हो गए. 1991 में तीसरी बार चुनाव हुए और इस बार कांग्रेस ने आनंद सिंह दांगी को अपना कैंडिडेट बनाकर चुनाव में उतारा. उपचुनाव के दौरान हुए बवाल से लोकदल की छवि को काफी नुकसान हुआ था. नतीजे में दांगी जीत गए. इतिहास में ये पहली बार हुआ था कि महम से लोकदल का कैंडिडेट नहीं जीता था. चौटाला फिर कभी महम से नहीं लड़े.

महम में उपचुनाव के दौरान हुई हिंसा.

इसके बाद आनंद सिंह दांगी यहां से नेता बनकर उभरे और तब से कांग्रेस का चुनाव वे ही लड़ते आ रहे हैं. दांगी 1991 के बाद 2005, 2009 और 2014 में भी यहां से विधायक रहे. 1996 और 2000 में यहां से इनेलो के बलबीर सिंह विधायक बने थे. दांगी को 2014 के चुनाव में यहां कड़ी टक्कर मिली थी. इनेलो के उम्मीदवार के अलावा इस बार बीजेपी के शमशेर खरकड़ा ने भी दांगी को कड़ी चुनौती दी थी. आनंद सिंह दांगी को 2014 के चुनाव में 37.57 प्रतिशत वोट मिले थे. वहीं 30.41 प्रतिशत वोट के साथ खरकड़ा दूसरे नंबर पर रहे थे.

आनंद सिंह दांगी.

वहीं अगर इनेलो की बात करें तो ये सीट इनेलो के लिए हमेशा ही महत्वकांक्षी सीट रही क्योंकि इस सीट ने चौधरी देवीलाल को देश की राजनीति के शिखर तक पहुंचाया. पार्टी और चौटाला परिवार के लिए खट्टे-मीठे अनुभवों वाली इस सीट पर देवीलाल के बाद बलबीर सिंह ने भी पार्टी के लिए दबदबा बनाया लेकिन 2005 के बाद से यहां इनेलो के वोट एक सीमा तक जाकर रूकने लगे.

शमशेर खरकड़ा.

साल 2014 में भी महम का चुनाव पहले की तरह ही चर्चित रहा लेकिन चुनाव परिणाम में कुछ चौंकाने वाला नहीं रहा. आनंद सिंह दांगी ने अपनी जीत की हैट्रिक पूरी की. अब सबकी नजर 2019 में होने वाले विधानसभा चुनाव पर हैं.

Last Updated : Aug 28, 2019, 7:06 PM IST

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