लखनऊःकृषि बिल के खिलाफ किसानों का आंदोलन लगातार जारी है. पंजाब- हरियाणा और यूपी के किसान दिल्ली बार्डर पर हाइवे जाम कर बैठे हैं. केंद्र सरकार के सभी प्रस्तावों को किसानों ने खारिज कर दिया है. इसके अलावा कई दौर की केंद्र सरकार के साथ चली वार्ता भी अबतक बेनतीजा रही है. अब गुस्साये किसानों ने अपना आंदोलन तेज करने का मन बना लिया है. अपने आंदोलन को और तेज करते हुए किसानों ने सभी हाइवे को जाम करने का ऐलान किया है.
अपने हक के लिए सरकार से दो-दो हाथ करने को तैयार किसानों को शायद आज चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत की कमी जरूर खल रही होगी. किसानों के हित में एक प्रकाश पुंज की तरह उभरे महेंद्र सिंह टिकैत का वो दौर था जब देश भर से किसान हमेशा उनके पीछे खड़ा था. 80 और 90 के दशक के उस दौर में जब-जब किसानों ने टिकैत के मुंह से हुंकार भरी सरकारें उल्टे पांव चल कर उनके पास तक पहुंची.
किसान आंदोलन के सबसे बड़े चौधरी थे टिकैत साहब
आजादी के बाद भारत की किसान राजनीति के वे सबसे बड़े चौधरी थे. उस दौर में देश के तमाम इलाकों में किसान संगठन बने और किसानों के कई बड़े नेता उभरे. समय के साथ वे बदल गए. उनका रंग- ढंग और तेवर बदल गया. लेकिन चौधरी टिकैत उन सबसे अलग भारत के किसानों के दिलों में जगह बनाने में कामयाब रहे. किसी हानि लाभ से परे जो दिल में आया वह कहा और जो मन में आया किया.
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बेहद ईमानदारी से किसानों को संगठित किया
चौधरी टिकैत के जीवन का सफर कांटों भरा था. 1935 में मुजफ्फरनगर के सिसौली गांव में जन्मे चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत का पूरा जीवन ग्रामीणों को संगठित करने में बीता. भारतीय किसान यूनियन के गठन के साथ ही 1986 से उनका लगातार प्रयास रहा कि यह अराजनीतिक संगठन बना रहे.
27 जनवरी 1987 को करमूखेड़ा बिजलीघर से बिजली के स्थानीय मुद्दे पर चला आंदोलन किसानों की संगठन शक्ति के नाते पूरे देश में चर्चा में आ गया. मेरठ के घेराव ने किसानों का संगठन और एकता की परिधि को व्यापक बना दिया और उनको एक ईमानदार नायक मिल गया था. जिसके साथ देश के करीब सारे छोटे बड़े किसान जुड़ कर एक झंडे तले आने के लिए उतावले थे.
सरकारों से होता रहा टकराव
किसानों के हकों के सवाल पर राज्य और केंद्र सरकार से टिकैत की बार बार लड़ाई हुई, लेकिन उन्होंने आंदोलन को अहिंसक बनाए रखा. उनकी राह गांधी की राह थी और सोच में चौधरी चरण सिंह से लेकर स्वामी विवेकानंद तक थे. 110 दिनों तक चला रजबपुर सत्याग्रह हो या फिर दिल्ली में वोट क्लब की महापंचायत, फतेहगढ़ केंद्रीय कारागार हो या फिर दिल्ली की तिहाड़ जेल उनका जाना, हर आंदोलनों ने किसान यूनियन की ताकत का विस्तार किया.
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1987 के बाद अपनी आखिरी सांस तक वे भारत के किसानों के एकछत्र नेता बने रहे. इसके बावजूद कि तमाम मौकों पर सरकारें उनकी ताकत को मिटाने के लिए सभी संभव प्रयास करती रहीं. उन्हें मुट्ठी भर किसानों का नेता तक कहा गया, लेकिन वे भारत के अकेले किसान नेता थे, जिन्होंने किसानों को जाति, धर्म और क्षेत्रीयता के खांचे में बंटने नहीं दिया. उनका नेतृत्व दक्षिण के उन किसानों ने भी स्वीकार किया जो. न उनकी भाषा जानते थे न बोली, लेकिन उनको इस बात का भरोसा था कि चौधरी टिकैत ही हैं जो ईमानदारी से उनके लिए खड़े रहेंगे.