आज की प्रेरणा
जो पुरुष सुख तथा दुख में विचलित नहीं होता और इन दोनों में समभाव रहता है, वह निश्चित रूप अमृतत्व का अधिकारी होता है. असत् वस्तु का तो अस्तित्व नहीं है और सत् का कभी अभाव नहीं है. तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुषों यह निष्कर्ष निकाला है. देव, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानी जनों का पूजन, शुद्धि रखना, सरलता, ब्रह्मचर्य का पालन करना और हिंसा न करना -- यह शारीरिक तप कहलाता है. सतोगुण में स्थित बुद्धिमान त्यागी, जो न तो अशुभ कार्य से घृणा करता है, न शुभ कर्म से लिप्त होता है, वह कर्म के विषय में कोई संशय नहीं रखता. यज्ञ, दान तथा तपस्या के कर्मों का कभी परित्याग नहीं करना चाहिए, उन्हें अवश्य सम्पन्न करना चाहिए . निस्सन्देह यज्ञ, दान तथा तपस्या महात्माओं को भी शुद्ध बनाते हैं. जो मनुष्य बिना कर्मफल की इच्छा किए हुए सत्कर्म करता है, वही मनुष्य योगी है. जो सत्कर्म नहीं करता, वह संत कहलाने योग्य नहीं है. जो कर्म मोहवश शास्त्रीय आदेशों की अवहेलना करके तथा भावी बन्धन की परवाह किये बिना या हिंसा अथवा अन्यों को दुख पहुँचाने के लिए किया जाता है, वह तामसी कहलाता है. मनुष्य के कर्मों की सिद्धि के पांच कारण हैं. अधिष्ठान अर्थात ये शरीर तथा कर्ता और अनेक प्रकार के करण एवं विविध प्रकार की अलग-अलग चेष्टाएँ और पांचवां कारण परमात्मा है. मनुष्य अपने शरीर, मन या वाणी से जो भी उचित या अनुचित कर्म करता है, वह पूर्वोक्त पांच कारणों के फलस्वरूप होता है. जो पूर्वोक्त पांच कारणों को न मानकर अपने आपको ही एकमात्र कर्ता मानता है, निश्चय ही वह दुर्मति मनुष्य यथार्थ नहीं देखता है. जिस मानव में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी गुण दोष से लिप्त नहीं होती, वह इस संसार में अपने कर्मों से बंधा नहीं होता है. यहां आपको हर रोज मोटिवेशनल सुविचार पढ़ने को मिलेंगे. जिनसे आपको प्रेरणा मिलेगी.