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Positive Bharat Podcast: जेल में बंद भगत सिंह ने जब अपने पिता को लिखा था पत्र...

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Published : Sep 27, 2021, 10:34 AM IST

ईटीवी पॅाजिटिव भारत के पॅाडकास्ट में आजादी के एक ऐसे दिवाने की कहानी सुनाने जा रहे हैं जिसने हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर चूम लिया. देश में जब भी आजादी का जिक्र होगा तो शहीद-ए-आजम भगत सिंह का नाम सबके जुबान पर खुद-ब-खुद आ जाएगा. आजादी के इस परवाने ने देश के लिए न सिर्फ अपने प्राणों को न्योछावर किया बल्कि देश के लाखों युवाओं के अंदर आजादी का वो जज्बा पैदा किया कि जो आज भी नौजवानों की रगों में दौड़ता है. 27 सितंबर 1907 को अविभाजित पंजाब के लायलपुर में जन्मे शहीद भगत सिंह देश की आजादी की लड़ाई में महज 23 साल की उम्र में फांसी के फंदे पर झूल गये. भगत सिंह भले ही शहीद हो गये लेकिन उनके नारे आज भी लोगों को जेहन में जिंदा हैं. आज भी लोगों में 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा जोश भरने का काम करता है. तो चलिए हम आपको भगत सिंह के एक ऐसे किस्से से रू-ब-रू करवाते हैं जो शायद ही आप को याद हो. दरअसल लाहौर केस में भगत सिंह के बचाव में उनके पिता ने स्पेशल ट्रिब्यूनल को एक आवेदन पत्र भेजा था. जिसका पता चलते ही शहीद भगत सिंह ने अपने पिता को सख्त लहजे में एक खत लिखा जिसमें देश और देश की आजादी को लेकर अपनी सारी भावनाएं उड़ेल दी. भगत सिंह ने 4 अक्टूबर 1930 को पिता के नाम एक सख्त खत लिखते हुए कहा कि 'बेटा होने के नाते आपकी भावनाओं और इच्छाओं का पूरा सम्मान करता हूं, लेकिन इसके बावजूद मैं समझता हूं कि आपको मेरे साथ सहाल-मशविरा किए बिना ऐसे आवेदन देने का कोई अधिकार नहीं था. आप जानते हैं कि राजनीतिक क्षेत्र में मेरे विचार आपसे काफी अलग हैं. मैं आपकी सहमति या असहमति का ख्याल किए बिना हमेशा आजादी के काम करता रहा हूं.' भगत सिंह ने अपनी भाषा को और तल्ख करते हुए यहां तक लिख दिया कि 'पिताजी, मैं बहुत दुख का अनुभव कर रहा हूं. मुझे डर है कि आप पर दोषारोपण करते हुए या इससे बढ़कर आपके इस कामकी निंदा करते हुए मैं कहीं सभ्यता की सीमाएं न लांघ जाऊं और मेरे शब्द ज्यादा सख्त न हो जाएं. लेकिन मैं साफ शब्दों में अपनी बात जरूर कहूंगा. अगर कोई दूसरा शक्स मुझसे ऐसा व्यवहार करता तो मैं इसे गद्दारी से कम न मानता, लेकिन आपके बारे में इतना कहूंगा कि यह एक कमजोरी है.' अपने खत में वो आगे लिखते हैं कि 'अंत में मैं आपसे, आपके दोस्तों और मेरे मुकदमे में दिलचस्पी लेने वालों से यह कहना चाहता हूं कि मैं आपके इस कदम को नापसंद करता हूं. मैं आज भी अदालत में अपना कोई बचाव पेश करने के पक्ष में नहीं हूं.' हालांकि ये खत उनके पिता को देर से मिला. 7 अक्टूबर 1930 को मुकदमे का फैसला सुना दिया गया. शहीद-ए-आजम भगत सिंह देश के लिए इतने समर्पित थे कि अपने परिवार यहां तक कि अपने पिता को भी उन्होंने सख्त लहजे में बता दिया कि उनके लिए देश से बढ़कर कोई भी नहीं है. भगत सिंह के जोश का अनुमान इन पंक्तियों से लगाया जा सकता है- उन्हें यह फ़िक्र है हरदम, नयी तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है? हमें यह शौक है देखें, सितम की इंतहा क्या है? दहर से क्यों ख़फ़ा रहें, चर्ख का क्या ग़िला करें। सारा जहाँ उदू सही, आओ! मुक़ाबला करें।

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