बेहद रोचक है उत्तराखंड का प्राचीनतम मुखौटा नृत्य देहरादून(उत्तराखंड): देवभूमि उत्तराखंड की धरती अनगिनत रहस्यमई संस्कृतियों से भरी है. रम्माण ऐसी ही एक पौराणिक संस्कृति जुड़ी परंपरा है. कहा जाता है रम्माण रामकथा परंपरा का अपभ्रंश है. रामायण से रम्माण बना है. रम्माण मुखौटा नृत्य से जुड़ा है. ये उत्तराखंड की प्राचीनतम पंरपरा है. रम्माण का इतिहास लगभग 500 साल पुराना है. रम्माण उत्तराखंड का एकमात्र ऐसा त्योहार है जिसे विश्व धरोहर घोषित किया गया है. उच्च हिमालय क्षेत्र चमोली में रम्माण की पंरपरा है. यहां कई सौ सालों से रम्माण मेले का आयोजन किया जाता है. इसके रहस्यमई मुखौटों से देवभूमि के देवत्व का एहसास होता है. क्या है मुखौटों की ये कहानी, कैसी है ये परंपरा आईये आपको विस्तार से बताते हैं.
उत्तराखंड का सीमांत जिला चमोली रम्माण पंरपरा का केंद्र है. चमोली के जोशीमठ ब्लॉक को देवताओं की भूमि माना जाता है. ये शहर यहां की जीवन शैली, संस्कृति और मठ मन्दिरों के लिए जाना जाता है. ये वही तप भूमि है जहां 8वीं शदी के आखिरी कुछ सालों में आदि गुरू शंकराचार्य का आगमन हुआ. शंकराचार्य ने इस क्षेत्र में तीन मठ- ज्योतिर्मठ, अणिमठ और थौलिंगमठ की स्थापना की. आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इनमें से एक मठ थौलिंगमठ मौजूदा वक्त में तिब्बत में है. इसी क्षेत्र में शंकराचार्य ने सनातनियों के चारो धामों में से एक विश्व प्रसिद्ध बदरीनाथ धाम की स्थापना की. बदरीनाथ धाम से 44 किलोमीटर पहले आदि गुरू शंकराचार्य ने ज्योतिर्मठ में अथर्ववेद की प्रतिष्ठा सम्पन्न कर 4 वर्षों तक बद्रीकाश्रम क्षेत्र में निवास किया. यहां उन्होंने ब्रह्मसूत्र भाष्य, गीता भाष्य एवं विष्णु सहस्रनाम भाष्य ग्रन्थों की रचना की.
बेहद रोचक है प्राचीनतम मुखौटा नृत्य सलूड़ गांव में होता है मुख्य आयोजन:रम्माण का मुख्य आयोजन चमोली के सलूड़ गांव में किया जाता है. इसका आयोजन आसपास के गांवों में भी किया जाता है, मगर सलूड़ गांव में मुख्य आयोजन होता है. रम्माण का आयोजन यहां की संयुक्त पंचायत करती है.रम्माण मेला 11 या 13 दिनों तक मनाया जाता है. रम्माण, पूजा, अनुष्ठानों की एक शृंखला है, इसमें सामूहिक पूजा, देवयात्रा, लोकनाट्य, नृत्य, गायन, मेला आदि का आयोजन होता. इस मेले में हर जाति के लोगों की अपनी एक भूमिका है. रम्माण नृत्य में कुरूजोगी, बण्यां और माल के विशेष चित्रण होता है, ये पात्र लोगों को खूब हंसाते हैं, साथ ही रम्माण के पात्र पर्यावरण से जुड़े संदेश भी देते हैं. रम्माण के आखिर में भूम्याल देवता प्रकट होते हैं, जो सभी को सुख समृद्दि का वरदान देते हैं.रम्माण नृत्य में 18 मुखौटे, 18 ताल, 12 ढोल, 12 दमाऊं, 8 भंकोरे का प्रयोग होता है. ये मुखौटे भोजपत्र से बने होते हैं.
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इतिहासकार और क्षेत्रीय जानकार बताते हैं कि आदिगुरु शंकराचार्य ने देवभूमि में सनातन धर्म और अद्वैत सिद्वान्त के प्रचार-प्रसार के लिए शुरू से ही स्थानीय लोगों में भगवान राम और भगवान कृष्ण की लीलाओं के प्रति आस्था की जागृत की. स्थानीय लोगों ने इसे गायन, नृत्य के माध्यम से अपने उत्सव और पर्वों में शामिल किया. जिसके बाद मंचों पर भी भगवान की लीलाओं का मंचन शुरू हुआ. रम्माण भी इसी का एक उदाहरण है. इसी जोशीमठ ब्लॉक के सलूड़, डुंग्रा, डुंग्री, बरोशी, सेलंग इत्यादि गांवों में आज भी रम्माण उत्सव एक धार्मिक अनुष्ठान है. जिसका प्रतीक और नेतृत्व यहां के कुछ पौराणिक मुखौटे करते हैं.
ईटीवी से खास बातचीत करते हुए इतिहासकार डॉक्टर खुशाल भंडारी ने बताया जोशीमठ के इन गांवों में तकरीबन 300 परिवार रहते हैं. जिनकी संख्या 2000 से ज्यादा है. भूमियाल देवता इनके आराध्य देव हैं. भूमियाल देवता के मन्दिर प्रांगण में हर साल बैशाख यानी अप्रैल माह में इस मुखौटो वाले रम्माण पर्व का आयोजन किया जाता है. गांवों के कुछ पुराने दस्तावेजों से ज्ञात होता है कि यह मेला सैकड़ों सालों से इस तरह अनवरत मनाया जाता आ रहा है. रम्माण मुख्यत बैशाखी से 9वें, 11वें अथवा 13वें दिन शुभ मुहूर्त निकलता है. तब तक रात्रिकाल में विभिन्न मुखौटा नृत्य, सूरज ईश्वर नृत्य, गणेश कालिका नृत्य, गान्ना गुन्नी नृत्य, म्वर म्वरीय नृत्य, बणिया बणियाण नृत्य, ख्यलारी नृत्य, राणी राधिका नृत्य, बुढदेवा नृत्य, पांडवनृत्य आदि कार्यक्रम हर दिन आयोजित किये जाते हैं.
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रम्माण मेले की विशेषता:रम्माण मेले की खास बात यह है कि इसमें सम्पूर्ण रामायण को संक्षिप्त रुप को नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है. राम-लक्ष्मण-सीता-हनुमान पारम्परिक श्रृगांर एवं वेशभूषा में पूरे दिन 18 अलग अलग धुन और तालों पर नृत्य करते हैं. रम्माण नृत्य के जरिए से रामायण की कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं जैसे राम-लक्ष्मण जन्म, राम-लक्ष्मण का जनकपुरी में भ्रमण, सीता स्वयंवर, राम-लक्ष्मण-सीता का वन गमन, स्वर्ण बध, सीता हरण, हनुमान मिलन, लंका दहन तथा राजतिलक के जैसी घटनाओं को प्रस्तुत किया जाता है.
मृगनृत्य एक ऐसी खास प्रस्तुति है जिसके दौरान पात्रों के मध्य किसी भी प्रकार का संवाद नहीं होता है. केवल जागरी यानी जागर गीत गाने वाले दृश्यों के अनुसार रामायण गाते हैं. नृत्य के दौरा मुख्य जागरी यानी जागर गीत गाने वाला व्यक्ति जोशीमठ के ही भलगांव या भाई गांव से बनाया जाता है. यह परंपरा पुरानी है. पुराने लोग ही इस विधा में काबिल भी हैं. वे इसमें रूचि भी रखते हैं. ऐसे ही गांव के ही कुछ लोग रामायण गाने में मुख्य जागरी का सहयोग करते हैं. रामायण प्रस्तुतिकरण के समय दृश्यों के मध्य विभिन्न मुखौटा नृत्य एवं क्षेत्र की ऐतिहासिक घटनाओं से सम्बन्धित कार्यक्रमों का सम्पादन किया जाता है, साथ ही बीच-बीच में भूमियाल देवता भी अपने निशान के शिखर पर विराजमान होकर नृत्य करते हैं.
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रम्माण नृत्य के 18 तालों में समाई पूरी रामायण:रम्माण मेले के दिन होने वाले मुखौटा नृत्य में एक से सात ताल तक राम-लक्ष्मण जन्म, आरती और नृत्य आते हैं. वहीं 8वीं ताल - अर्द्धगा नृत्य का होता है. आठवें ताल में अर्द्धगा नृत्य करती है, ऐसा माना जाता है कि यह समय सीता स्वयंवर का है, यहा दृश्य पर्वती द्वारा अर्द्धनारीश्वर का रूप धरण करने के प्रसंग से सम्बन्धित है. 9वां ताल सीता स्वयंवर का होता है. 10 वें ताल में पहला म्वर-म्वरीण नृत्यः है. म्वर (महर) गाय-भैंस पालने वाले एक विशेष जंगली जाति का प्रतिनिधि है, जिस पर बाघ, भालू आदि जंगली जानवरों द्वारा हमला किया जाता है, घायल अवस्था में वह पारम्परिक घरेलू चिकित्सा पद्वति का प्रयोग करता है. स्वस्थ होने पर पहले उस पर देवता अवतरित होता है. फिर पत्नी म्वरीण से मिलन एवं दोनों नृत्य कर पति-पत्नी के बीच मधुर सम्बन्धों का संदेश देते हैं.
मुखौटों से होता है देवत्व का एहसास
11वें ताल में बणियां- बणियाण एवं ख्यलारी नृत्य:पुरातन समय में यातायात की सुविधाओं के अभाव में क्षेत्रीय लोग अपनी दैनिक मूलभूत आवश्यकताओं की वस्तुओं जैसे- नमक, गुड़, कपड़ा, मसाले, मेवे आदि के क्रय के लिए सैकड़ों मील पैदल यात्रा करते थे. 1962 से पूर्व तिब्बत स्थित मण्डियों तथा बाद के वर्षों में रामनगर, गरूड़, कोटद्वार आदि मण्डियों से व्यापार होता था. इन व्यापारिक मण्डियों से व्यापारी (बणिया) भी अपने पारिवारिक सदस्यों एवं सहायकों के साथ वस्तु विनिमय एवं व्यापार के लिए इस क्षेत्र में आते थे. वे इस क्षेत्र के रीति-रिवाज, खान-पान, रहन-सहन, बोली-भाषा एवं व्याप्त अंधविश्वासों पर व्यंग्य करते थे. कुछ स्थानीय लुटेरे (चोरभारी) इन व्यापारियों को लूटने का प्रयास करते थे. इन्हीं पुरातन घटनाओं को नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है. बणियां- बाणियाण नृत्य तीन तालों में सम्पन्न होता है.
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15वें ताल में माल नृत्य:मेले के मध्यकाल में वीर रस से युक्त आकर्षक नृत्य कार्यक्रम होता है. जिसमें मन्दिर परिसर के 100 मीटर पूर्व तथा 100 मीटर पश्चिम दिशा से दो-दो माल (मल्ल / योद्धा) बन्दूक, ढाल व खुखरियों के साथ नृत्य करते हुये मुख्य प्रांगण में पहुंचते हैं. यह युद्ध गोर्खाणी काल की याद में लड़ा जाता है. गोर्खाओं के राज (1803-1815 ई0) के अन्तिम वर्षों में गांव के कुछ योद्धाओं द्वारा पतई रूपवाल के नेतृत्व में रूपवालग्वाड़ नामक तोक में गोर्खा सैनिकों पर गुरिल्ला आक्रमण द्वारा कई गोर्खा सैनिकों का वध कर बचे हुए सैनिकों को गांव से भागने के लिए मजबूर किया था. भागते समय वे अपने कई हथियारों को यही छोड़ गये. उपयुक्त संरक्षण के अभाव में ये हथियार क्षतिग्रस्त एवं चोरी हो गये हैं. चार मालों में से दो माल सफेद एवं दो माल लाल रंग के होते हैं, जो क्रमशः गढ़वाली एवं गोर्खा योद्धाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं.
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रम्माण के समापन पर 'कुरूजोगी' का आगमन: लगभग दो घंटे तक चलने वाले इस नृत्य का समापन कुरूजोगी के आगमन से होता है. गाजर घास (Parthenium bifolia) एवं कुरी घास (Lantana) की तरह इस क्षेत्र में बहुतायत से उगने वाली कूरु घास (Cythula tomentosa) भी भूमि की उत्पादन क्षमता को धीरे-धीरे समाप्त कर रही है. रम्माण मेले से पूर्व इस हानिकारक घास को काफी मात्रा में एकत्रित किया जाता है. इस घास के कंटीले फूलों से लदा व्यक्ति 'कुरूजोगी' कहलाता है, जो कूरू घास के फूलों को मालों के साथ-साथ दर्शकों पर भी चिपकाता है. यह इस मेले का प्रसाद भी है. इस प्रकार मेले के निमित्त 'कुरू' जैसी हानिकारक घास के उन्मूलन का प्रयास किया जाता है. इससे रम्माण सीधे तौर पर पर्यावरण से भी जुड़ता है.
16वां ताल स्वर्ण मृग वध: स्वर्ण मृग बना पात्र स्थानीय वेश भूषा में मृग का मुखौटा धारण कर नृत्य करता है. सीता माता मृग को पानी पिलाकर उसकी प्यास बुझाती हैं. जिसके बाद भगवान राम द्वारा मृग का वध किया जाता है.16वीं ताल में स्वर्ण मृग वध का प्रस्तुतीकरण किया जाता है. 17वां ताल भगवान राम का स्वर्णमृग (हिरण) के कटे सिर के साथ नृत्य और फिर सीता हरण और उसके बाद लंका दहन के बाद आता है. 18वां ताल राज तिलक का. इसमें ब्राह्मण द्वारा राम-लक्ष्मण-सीता-हनुमान की आरती एवं तिलक किया जाता है. इसके पश्चात् 'फूलचेली' (फूल एकत्रित करने वाली कन्या) द्वारा राम-लक्ष्मण-सीता - हनुमान के साथ-साथ सभी दर्शकों का तिलक किया जाता है. अब राम-लक्ष्मण-सीता- हनुमान मन्दिर प्रांगण के एक निश्चित स्थान पर अपने वस्त्रों, शस्त्रों एवं अन्य श्रृंगार सामग्री को एक बड़े पात्र में रखकर, गांव के मुख्य व्यक्तियों के साथ एक-दूसरे का हाथ पकड़कर गोल घेरे में खड़े हो जाते हैं. इसके बाद वे 18 बार सम्पूर्ण क्षेत्र की खुशहाली एवं सम्पन्नता की कामना करते हैं.
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पांच तालों पर होता नृसिंह प्रह्लाद नृत्य:ठीक गोधुली की बेला पर भूमियाल देवता मन्दिर के गर्भ गृह में प्रवेश करते हैं. अब भगवान नृसिंह का अवतार होता है. नृसिंह भगवान अपने भारी भरकम (लगभग 20 किलो) मुखौटा धारण कर भक्त प्रह्लाद के साथ पांच विभिन्न तालों पर नृत्य करते हैं. नृसिंह नृत्य के पश्चात् भूमियाल देवता मन्दिर के गर्भ गृह से बाहर आकर नृत्य करते हैं. समस्त दर्शकों को अपना आशीर्वाद देते हैं.
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अंत में अवतरित होते हैं भूमियाल देवता:अब भूमियाल देवता अपने पश्वा (वह व्यक्ति जिस पर भूमियाल देवता अवतरित होता है) पर अवतरित होता है. साथ में मां दुर्गा, मां नन्दा, त्यूण देवता एवं विश्वकर्मा देवता भी अपने-अपने पश्वाओं पर अवतरित होकर सब लोगों को अपना आशीर्वाद देते हैं. अन्त में भूमियाल देवता पूर्व निर्धारित परिवार में निवास व वर्षभर की पूजा हेतु गाजे-बाजे के साथ प्रस्थान करते हैं.