भीलवाड़ा.वैसे तो पूरे राजस्थान में शीतला अष्टमी का त्योहार मनाया जाता है मगर वस्त्रनगरी भीलवाड़ा में शीतला अष्टमी का त्यौहार अनूठे अंदाज में मनाया जाता है. यहां शीतला अष्टमी पर भीलवाड़ा शहर में 'मुर्दे की सवारी' निकाली जाती है. यह परंपरा पिछले 425 सालों से निभाई जा रही है. मुर्दे की सवारी होली के 8 दिन बाद निकाली जाती है जिसकी शुरुआत शहर के 'चित्तौड़ वालों की हवेली' स्थान से होती है. इस आयोजन में एक जीवित युवक को अर्थी पर लेटाकर ढोल-नगाड़ों के साथ मुर्दे की सवारी निकाली जाती है. माना जाता है कि वर्ष भर हम जो भी गलतियां करते हैं या हमारे अंदर जो भी बुराई आती है उसे प्रतीकात्मक मुर्दे के दहन के साथ दूर किया जा सके.
इसमें शहर के अलावा आसपास के जिलों से भी लोग आते हैं और जमकर रंग-गुलाल उड़ाते हुए आगे बढ़ते जाते हैं. इस दौरान यहां पर जमकर अपशब्दों का प्रयोग किया जाता है जिस कारण इस कार्यक्रम में महिलाओं का प्रवेश वर्जित रखा जाता है. यह सवारी भीलवाड़ा रेलवे स्टेशन चौराहा, गोल प्याऊ चौराहा, भीमगंज थाना होते हुए बड़ा मंदिर पहुंचती है. यहां पहुंचते ही अर्थी पर लेटा व्यक्ति नीचे कुदकर भाग जाता है और प्रतीक के तौर पर अर्थी का बड़ा मंदिर के पीछे दाह संस्कार कर दिया जाता है.
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425 सालों से निभाई जा रही परंपरा
भीलवाड़ा निवासी जानकी लाल सुखवाल का कहना है कि हमारे पूर्वज बताते रहे हैं कि भीलवाड़ा शहर का निर्माण विक्रम संवत् 1655 में हुआ था. तब मेवाड़ रियासत के राजा ने भोमियों का रावला के ठाकुर को ताम्रपत्र व पट्टा प्रदान किया था. इसका प्रमाण रावले में आज भी मौजूद है और तब से इस परंपरा की शुरुआत हुई है. आज इसे 425 साल हो चुके हैं और यह परंपरा आज भी जारी है. इस परंपरा के अनुसार शीतला अष्टमी से पूर्व शहर में दो स्थानों पर भैरव नाथ की स्थापना होती है. इसके बाद पंच पटेल बड़ा मंदिर में एक बैठक रखी जाती है जहां लोगों से मुर्दे की सवारी के लिए चन्दा एकत्रित किया जाता है. ऐसी मान्यता है कि जो भी इसमें चन्दा देता है उसके घर सुख-शांति और लक्ष्मी का वास होता है. उसके बाद इसी यात्रा की तैयारी की जाती है और सभी पंच चित्तौड़ वालों की हवेली जाते हैं जहां से मुर्दे की सवारी निकाली जाती है.