हैदराबाद : एक हाथ से कभी भी ताली नहीं बजती है. किसी भी देश में अगर मजबूत और विश्वसनीय विपक्ष न हो, तो उसे प्रजातांत्रिक देश नहीं कहा जा सकता है. यह उक्ति और किसी की नहीं, बल्कि संविधान निर्माता डॉ भीमराव आंबेडकर की है. उन्होंने ऐसा इसलिए कहा ताकि कोई भी सरकार निरंकुश न हो सके. पिछले दो आम चुनाव में जिस तरह के परिणाम आए हैं, और जिस तरह से भाजपा का उत्थान हुआ है, उनके खिलाफ विपक्ष ठीक से अपनी आवाज भी नहीं उठा पा रहा है.
इन परिस्थितियों के मद्देनजर यह चर्चा चल पड़ी है कि आने वाले लोकसभा चुनाव में अगर भाजपा को हराना है, तो सभी विपक्षी दलों को एक साथ खड़ा होना पड़ेगा. और इस ओर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विशेष पहल की है. पिछले कुछ महीनों में उन्होंने इस कड़ी में देश के कई नेताओं से मुलाकात की है. वह अलग-अलग राज्यों में गए हैं. उनके साथ व्यापक गठबंधन के विषय पर सैद्धान्ति सहमति बनाने का प्रयास कर रहे हैं. शुक्रवार को बिहार की राजधानी पटना में विपक्षी दलों की एक बड़ी बैठक हो रही है.
अगर विपक्षी दल किसी भी एक प्लेटफॉर्म पर आते हैं, तो यह एक प्रशंसनीय कदम कहा जाएगा, लेकिन शंकाएं भी कम नहीं हैं. कुछ राज्यों में तो विभिन्न विपक्षी दलों के बीच सीधी प्रतियोगिता है. तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख और प.बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने साफ कर दिया है कि अगर कांग्रेस और सीपीएम हाथ मिलाते हैं, तो वह उनका साथ नहीं देंगी. इसी तरह से दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने पंजाब और दिल्ली को लेकर बयान दिए हैं. उनकी पार्टी का कहना है कि कांग्रेस को यहां से दूर रहना चाहिए.
उनकी पार्टी आप ने राजस्थान में कांग्रेस के विरुद्ध अपने प्रचार अभियान की शुरुआत भी कर दी है. गुरुवार को आप की बिहार ईकाई ने बिहार के सीएम के खिलाफ पोस्टर वार छेड़ दिया है. समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव भी चाहते हैं कि भाजपा को हराने के लिए विपक्षी दलों को मजबूत करने की जरूरत है. लेकिन क्या वे कांग्रेस को स्पेस देंगे, कहना मुश्किल है ? ऐसे में जहां पर सभी पार्टियों के हित एक दूसरे से टकरा रहे हैं, कांग्रेस और वाम को एक प्लेटफॉर्म पर लाकर क्या नीतीश अपने लक्ष्य में कामयाब हो पाएंगे. क्या पटना की बैठक में इन महत्वाकांक्षाओं पर विराम लग सकेगा ?
2014 में भाजपा को 292 सीटें मिली थीं, जबकि वोट 31.34 प्रतिशत था. 2019 में भाजपा को 303 सीटें आईं, जबकि मत प्रतिशत 37.7 प्रतिशत हो गया. इस मत प्रतिशतों में ही विपक्षी दलों को एक नई राह दिखी. विपक्षी दल ये मानने लगे कि अगर गैर भाजपा दलों को मिले मत प्रतिशतों को समेट लिया जाए, तो भाजपा को हराना मुश्किल नहीं है. कर्नाटक में भाजपा की हार और कांग्रेस की जीत ने इस सोच को और अधिक उत्साहजनक बना दिया है. लेकिन कांग्रेस यह भी चाहती है कि विपक्षी दलों के केंद्र में वही रहे.