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'आतंकवाद' ने छुड़वाया घर, फिर भी बना दिया सैकड़ों का भविष्य

आज हम ऐसे 'लाल' की बात कर रहे हैं, जो मूलरूप से रहने वाले पंजाब के हैं, लेकिन अब उत्तर प्रदेश के वाराणसी में बस गए हैं. पंजाब में जब आतंकवाद और नशे का कारोबार चरम पर था तो उन्होंने वहां से हट जाना ही ज्यादा उचित समझा. ये 'लाल' पेशे से जूडो कोच हैं. इन्होंने अब तक कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी भारत और यूपी को दिए हैं. देखिए ये खास रिपोर्ट...

लाल कुमार
लाल कुमार

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Published : May 27, 2021, 1:43 PM IST

वाराणसी : कहते हैं इंसान मुसीबतों से घिरा हो तो उसे कई बार रास्ते नजर नहीं आते, लेकिन मुसीबत के समय लिए गए कुछ फैसले इंसान की जिंदगी को कई बार बदल देते हैं. ऐसा ही कुछ लगभग 28 साल पहले अमृतसर, पंजाब से बनारस आए जूडो कोच लाल कुमार के साथ भी हुआ है. जब 1980 से लेकर 1995 के दौर में पंजाब में नशा और आतंकवाद चरम पर था तब अपने जीवन की खेल जगत में शुरूआत कर रहे लाल कुमार ने पंजाब के बुरे हालात से परेशान होकर यूपी का रुख किया और धर्म नगरी बनारस को अपनी कर्मभूमि बनाने की ठानी. यहां पहुंचने के बाद उन्होंने जूडो को नई ऊंचाइयां देने के लिए वे प्रयास शुरू किए, जो आज कइयों की जिंदगी सुधारने की वजह बन गए हैं.

स्पेशल रिपोर्ट...

लाल कुमार को यूपी में जूडो कुमार के नाम से जाना जाता है. यह कोच स्टेडियम के एसी कमरों में नहीं बल्कि गांव की मिट्टी में जाकर ग्रामीण परिवेश से अब तक सैकड़ों नेशनल-इंटरनेशनल खिलाड़ियों को तैयार कर चुके हैं, लेकिन तकलीफ इस बात की है कि सैकड़ों की जिंदगी संवारने वाला यह शानदार कोच अब तक अपने अंधेरे में गुम हुए भविष्य के लिए उजाला तलाश रहा है. सैकड़ों इंटरनेशनल और नेशनल प्लेयर तैयार करने वाले इस फाइटर कोच के पास अब तक न नौकरी है और न ही कोई उम्मीद.

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निराश होकर छोड़ा अपना घर
लाल कुमार बताते हैं कि 1985 के राष्ट्रीय खेलों के कांस्य पदक विजेता के तौर पर उन्होंने राष्ट्रीय खेल संस्थान पटियाला से जूडो कोच का सर्टिफिकेट हासिल किया. इसके बाद अमृतसर में जब आतंकवाद और नशे ने कुछ युवाओं को अपनी गिरफ्त में लेना शुरू किया तब उन्हें यह समझ में आ गया कि वह पंजाब में रहकर अपने भविष्य को न संवार पाएंगे और न ही किसी युवा को तैयार कर पाएंगे. ऐसे में उन्होंने यूपी को अपनी कर्मभूमि बनाने की ठानी.

1993 में 300 रुपये से शुरू किया करियर
लाल कुमार बताते हैं कि 1993 में जब वह बनारस आए और वाराणसी के डॉक्टर संपूर्णानंद स्पोर्ट्स स्टेडियम में पहुंचे तब पूर्व अंतरराष्ट्रीय हॉकी खिलाड़ी और तत्कालीन रीजनल स्पोर्ट्स ऑफिसर एनपी सिंह ने बनारस में जूडो के भविष्य को लेकर सवाल उठाए. उन्होंने एनपी सिंह से बतौर कोच जूडो सिखाने की बात कही, जिस पर 300 रुपये महीने पर स्टेडियम में बतौर जूडो कोच उन्हें तैनाती मिल गई. लाल कुमार का कहना है कि मुझे वह दिन आज भी याद है जब महज 300 रुपये में उन्होंने बनारस में जूडो सिखाने की शुरुआत की.

जूडो प्रैक्टिस कराते कोच.

संसाधनों की कमी ने मोड़ा गांव की तरफ
लाल कुमार बताते हैं कि दिक्कत इस बात की थी ना ही स्टेडियम में जूडो के लिए कोई व्यवस्था थी और न ही यहां के खिलाड़ी जूडो का नाम जानते थे, लेकिन उन्होंने तब भी हार नहीं मानी. खिलाड़ियों को तलाशने के लिए लाल कुमार शहर को छोड़कर ग्रामीण इलाकों में निकल गए और एक-एक करके उन्होंने लोहता, भट्टी, भरथरा, धननीपुर समेत 10 से ज्यादा गांवों से 100 से ज्यादा पहलवानों की टीम तैयार की. यह पहलवान गांव की मिट्टी में अखाड़े में कुश्ती लड़ते थे और जूडो से अनजान थे, लेकिन लाल कुमार ने इन्हें इस तरह तैयार किया कि एक-एक करके या खिलाड़ी नेशनल और इंटरनेशनल लेवल पर पहुंच गए.

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एक के बाद एक निकले कई बड़े खिलाड़ी
लाल के शिष्यों की सूची बहुत लंबी है, लेकिन इनमें से वर्तमान समय में विवेक कुमार, राम आसरे, रामाश्रय यादव समेत 12 से ज्यादा इनके सिखाए शिष्य इंटरनेशनल लेवल पर खेल रहे हैं और पंजाब पुलिस, हरियाणा पुलिस, यूपी पुलिस, रेलवे और कई अन्य जगहों पर नौकरी भी कर रहे हैं. यहां तक कि इनके सिखाए कुछ लड़के तो स्पोर्ट्स कोच की ट्रेनिंग लेने के बाद सर्टिफिकेट हासिल करके कई स्पोर्ट्स हॉस्टल में कोच भी बन चुके हैं.

भठ्ठी गांव के पहलवान ने जीता पहला गोल्ड, तब बदली सोच
सबसे बड़ी बात यह है कि लाल कुमार ने इन दिनों बीएचयू के दृष्टिबाधित छात्रों को भी जूडो सिखाने का काम शुरू किया है. लाल कुमार बताते हैं कि उनके लिए गांव से बच्चों को बाहर निकालना किसी चैलेंज से कम नहीं था, क्योंकि गांव तक आने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे, गाड़ी नहीं थी. वह साइकिल से या फिर किसी दूसरे की मदद से गांव तक पहुंचे थे और यहां पर सबसे पहले उन्होंने भट्टी गांव में पहलवान जर्मन यादव का साथ पकड़ा. कुश्ती के इस पहलवान के बल पर उन्होंने कई नए लड़कों से संपर्क किया.

जूडो प्रैक्टिस कराते कोच.

कुछ सालों की ट्रेनिंग के बाद सबसे पहले जर्मन यादव को जूनियर राष्ट्रीय जूडो चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक मिला, जिसके बाद गांव के लड़कों का इस ओर ध्यान गया और फिर एक-एक करके लाल कुमार की टीम में कई नए लड़के जुड़ते गए. पहलवान कुश्ती छोड़कर जूडो की तरफ आकर्षित होने लगे. स्पोर्ट्स स्टेडियम में बैडमिंटन हॉल में कुश्ती छोड़ने और जूडो मैट पर लड़कों को ले जाने के लिए उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा, लेकिन उन्होंने अपने इस कार्य को रोका नहीं बल्कि आसपास के कई गांवों से भी लड़कों को जुटाने का काम शुरू किया, जिसके बाद चैंपियन जोड़ों की एक नई टीम तैयार होने लगी.

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दूसरों का बनाया भविष्य, लेकिन...
वर्तमान समय में यूपी पुलिस में काम करने वाले रामाश्रय हों या फिर कॉमनवेल्थ गेम में गोल्ड मेडल जीतने वाले विवेक कुमार, इस वक्त सभी अपने स्तर पर बेहतर खेल के साथ नौकरी भी कर रहे हैं. लाल कुमार बताते हैं कि शुरुआत के दिनों में दिक्कतें बहुत थी. जगह नहीं थी और गांव के गरीब बच्चों के पास जूडो के कपड़े और ड्रेस भी मौजूद नहीं थी. इस पर उन्होंने अपने पास से और दूसरों से डोनेशन की मदद से इन बच्चों की मदद की.

जूडो प्रैक्टिस.

खुशी दूसरों को दी, खुद को मिला दर्द
लाल कुमार का कहना है कि उनके कई शिष्यों ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जूडो में अपना नाम तो ऊपर उठाया ही. साथ ही नौकरी पाकर अपने परिवार का पेट पालने की भी कोशिश की. कई सफल भी हो गए, लेकिन तकलीफ इस बात की है कि इन बच्चों को तैयार करने के लिए मैं आज भी संघर्ष कर रहा हूं. 28 साल पहले 300 रुपये महीने से मेरी शुरुआत हुई. बाद में यह बढ़कर 1200 रुपये हुआ. सन 2000 में पारिश्रमिक को बढ़ाकर 7000 कर दिया गया और वर्तमान में लगभग 25 हजार रुपये मिल रहे हैं, लेकिन किस काम के, क्योंकि मैं अब तक संविदा पर ही नौकरी कर रहा हूं.

उनका कहना है, 28 सालों से सैकड़ों नेशनल और इंटरनेशनल प्लेयर को तैयार कर देश के लिए मेडल लाने और भारत में जूडो के नाम को ऊपर लाने का मेरा यह प्रयास भले ही दूसरों के लिए सफल हुआ हो, लेकिन मेरे लिए तो फेल साबित हुआ है. क्योंकि अब मेरी उम्र 58 वर्ष हो गई है. दो साल बाद मैं रिटायर हो जाऊंगा. ऐसी स्थिति में मैं अपने अपने परिवार के लिए क्या कर पाया, यह बड़ा सवाल है.

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