प्रयागराज: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बुधवार को एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया है. कहा है कि 'किसी बंदी की ओर से दाखिल जमानत अर्जी की पैरवी करने के लिए यदि उसका वकील उपस्थित नहीं होता है तो अर्जी खारिज नहीं की जा सकती है. ऐसा करना न सिर्फ विधिक सेवा प्राधिकरण कानून में मिले बंदी के अधिकार का हनन होगा, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उसके मौलिक अधिकार का भी हनन होगा.'
आजमगढ़ के मनीष पाठक की जमानत अर्जी पर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति अजय भनोट ने यह निर्णय दिया. अर्जी पर सुनवाई के दौरान आवेदक मनीष की ओर से कोई अधिवक्ता बहस के लिए उपस्थित नहीं हुआ था. इस पर कोर्ट ने जब आर्डर शीट देखी तो पता चला कि पिछली कई तारीखों से कोई अधिवक्ता उसकी जमानत की पैरवी करने के लिए नहीं आ रहा है. अदालत के समक्ष यह सवाल था कि अदम पैरवी में जमानत अर्जी खारिज कर दी जाए या बंदी का पक्ष रखने के लिए कोई न्याय मित्र नियुक्त किया जाए. इसके बाद कोर्ट ने इस मामले में एक अधिवक्ता न्याय मित्र नियुक्त कर दिया.
अदालत का कहना था कि जब एक जमानत अर्जी अदम पैरवी में खारिज कर दी जाती है तो बंदी की अभिरक्षा की अवधि अपने आप बढ़ जाती है. यहां तक कि वह अदालत में बिना प्रतिनिधित्व के रह जाता है और अदालत तक उसका पक्ष नहीं पहुंच पाता है. कोर्ट ने कहा कि बंदी जिसने जमानत के लिए आवेदन किया है, कई बार गरीब और लावारिस होते हैं. उनका कोई पैरोकार नहीं होता, जो यह देख सके कि वकील उपस्थित हुआ है या नहीं. ऐसे में वकील की गैर मौजूदगी में जमानत अर्जी खारिज करना अनुमन्य नहीं हो सकता.
मामले के अनुसार मनीष पाठक को पुलिस ने एक एनकाउंटर में गिरफ्तार किया था. उसके खिलाफ पुलिस पर जानलेवा हमला करने का मुकदमा दर्ज किया गया. मनीष पाठक का पक्ष रख रहे न्याय मित्र का कहना था कि एनकाउंटर फर्जी था और पुलिस में किसी को भी जानलेवा चोट नहीं आई है. उसे फंसाने के लिए उसके पास से सामान की बरामदगी दिखाई गई है, जिसका कोई स्वतंत्र गवाह नहीं है. अभियोजन ने जो साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं, उनका घटना और अभियुक्त से कोई संबंध साबित नहीं होता है. मुकदमे का ट्रायल बहुत धीमा चल रहा है, जिसके जल्दी पूरा होने की उम्मीद नहीं है. कोर्ट ने अभियुक्त की जमानत मंजूर करते हुए उसे रिहा करने का आदेश दिया है.
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