छिंदवाड़ा। छिंदवाड़ा के आदिवासी अंचल का सीताफल जिसे शरीफा भी कहा जाता है, भले ही वह देश भर के अलग-अलग शहरों में अपनी मिठास बिखेर रहा है, लेकिन उसे बाजार तक पहुंचाने वाले आदिवासियों की दिनभर की मजदूरी निकलना भी मुश्किल हो रहा है. सेहत के लिए खजाना कहे जाने वाले फल को बेचने के लिए अब आदिवासियों को नेशनल हाईवे का सहारा लेना पड़ रहा है, देखें रिपोर्टर महेंद्र राय की खास रिपोर्ट-
सीताफल बेचने के लिए नेशनल हाईवे का सहारा:छिंदवाड़ा से भोपाल को जाने वाले नेशनल हाईवे के किनारे बाजार सांवरी गांव से दुनावा के बीच सैकड़ों की संख्या में सीताफल के टोकरे लेकर बैठे आदिवासी नजर आते हैं, उम्मीद होती है कि कोई रास्ते पर चलने वाले यात्री रुककर सीताफल खरीद लें, जिससे कुछ पैसों का जुगाड़ हो सके. हालांकि बाजार सांवरी में शुक्रवार को लगने वाले साप्ताहिक बाजार के दिन देश के कई शहरों से सीताफल की खरीददार यहां पर पहुंचते हैं और आदिवासियों से कम दामों में सीताफल खरीद कर उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, झारखंड और कोलकाता लेकर जाते हैं. सीताफल के लिए कोई मंडी नहीं होने की वजह से ग्रामीण आदिवासी इसे बाजारों में या फिर सड़क के किनारे बैठकर ही बेचते हैं.
सीताफल की मजदूरी निकलना भी मुश्किल:बाजारों में सीताफल लाकर बेचने वाले आदिवासी बताते हैं कि इलाके में जंगल बहुत अधिक है, वहीं पर सीताफल की फसल होती है. दिनभर वे सीताफल जंगलों में तोड़ते हैं, मुश्किल से एक व्यक्ति 2 या 3 टोकरी सीताफल बाजार ला पाते है. एक टोकरे में करीब 40 से 50 फल होते हैं और एक टोकरी का दाम महज 100 रुपये मिलता है. दिन भर की मजदूरी निकलना भी आदिवासियों के लिए मुश्किल होता है, जंगलों में सीताफल के पेड़ होने की वजह से कोई भी स्थानीय आदिवासी आसानी से फल तोड़ सकता है, हालांकि कुछ जगहों पर ग्राम वन समिति होती है, जो जंगलों का ठेका भी देती हैं.