कुल्लू:देवभूमि हिमाचल प्रदेश की संस्कृति का प्रतीक अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरे का इस साल कोरोना महामारी के चलते प्रशासन के कड़े दिशानिर्देशों के साथ आयोजन किया जा रहा है. 370वें अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरे का आयोजन 25 से 31 अक्टूबर तक किया जाएगा. हालांकि 58 साल बाद फिर से चीन की नजर कुल्लू दशहरे को लगी है, इसके बारे में विस्तार से हम आगे बात करेंगे.
साल 2020 के कुल्लू दशहरे को लेकर शिक्षा मंत्री और कुल्लू दशहरा समिति के अध्यक्ष गोविंद सिंह ठाकुर ने कहा कि इस साल कोरोना के चलते दशहरा अलग स्वरूप में नजर आएगा. कोरोना के चलते न तो कुल्लू में हजारों लोगों की भीड़ जुटेगी और ना ही ढोल नगाड़ों की थाप पर श्रद्धालुओं का दल झूमेगा. सूक्ष्म रूप से मनाए जा रहे दशहरे उत्सव में सिर्फ सात देवी-देवता ही भाग लेंगे और रथयात्रा में भी सिर्फ 200 लोगों की मौजूदगी में होगी.
रथयात्रा में शामिल होने वालों का कोविड टेस्ट
कुल्लू जिला प्रशासन की ओर से जारी दिशानिर्देशों के अनुसार, इस बार कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम, प्रदर्शनी और व्यापारिक गतिविधियां भी ढालपुर के मैदानों में आयोजित नहीं की जाएंगी. रथयात्रा में शामिल होने वाले सभी लोगों को कोविड टेस्ट भी करवाना होगा. ढालपुर में भगवान रघुनाथ का अस्थाई शिविर सजाया जा रहा है और देवता जमदग्रि ऋषि का पंडाल भी तैयार हो रहा है.
इस साल फूल लेकर आएंगे बाकी देवी-देवताओं के कारदार
कुल्लू जिला के देवी-देवता इस साल दशहरा उत्सव में भाग नहीं ले पाएंगे, लेकिन फूल के रूप में सभी देवी-देवता भगवान रघुनाथ के दरबार में हाजिरी लगाएंगे. हालांकि सात देवी-देवता रथ में सवार होकर दशहरा उत्सव की परम्पराओं का पालन करेंगे, लेकिन कोरोना के के चलते बाकी देवी-देवताओं को निमंत्रण नहीं दिया गया है.
ऐसे में भगवान रघुनाथ के दरबार मे दर्शनों के लिए आने वाले लोगों के लिए भी जिला प्रशासन ने अलग से व्यवस्था की है.
58 साल पहले रथयात्रा में पहुंचे थे सिर्फ पांच देवी-देवता
वहीं, भगवान रघुनाथ के छड़ीबरदार महेश्वर सिंह ने कि इस बार कुल्लू दशहरे की रथयात्रा में सिर्फ सात ही देवी-देवता भाग लेंगे. कोरोना महामारी के कारण 58 साल के बाद ऐसा दौर आया है. इससे पहले भारत और चीन के साथ हुए युद्ध के दौरान कुल्लू जिला में ब्लैकआउट की स्थिति थी. उस समय में कुल्लू दशहरे में सिर्फ पांच ही देवी-देवताओं ने रथयात्रा में भाग लिया था.
हालांकि देव कृपा से दशहरे के पहले ही दिन बॉर्डर पर स्थिति सामान्य हो गई थी और दशहरे का सही से आयोजन किया गया था.
1972-73 में नहीं मनाया था दशहरा उत्सव
साल 1971 कुल्लू दशहरा उत्सव में गोलीकांड हुआ था और इस दौरान उत्सव में भगदड़ मच गई थी और गोलियां चलाई गई. उसके बाद 1972-73 में दो वर्षों तक दशहरा उत्सव नहीं मनाया गया, लेकिन वर्ष 1974 में तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. वाईएस परमार ने उत्सव को मनाने की पहल की और उसके बाद निरंतर उत्सव मनाया जा रहा है. वहीं, 2015 में बलि पर पाबंदी लगने के बाद अब उसकी जगह नारियल काटा जाता है.
कुल्लू दशहरे की रामलीला में नहीं फूंका जाता है रावण का पुतला
कुल्लू दशहरा में रामलीला के केवल सुंदरकांड व युद्धकांड का प्रतीकात्मक पटाक्षेप दर्शाया जाता है. जिसमें रावण का पुतला न फूंककर केवल लंका दहन की परंपरा निभाई जाती है.
रथयात्रा के दौरान देवता नाग धूमल करते हैं यातायात नियंत्रित
जब भगवान रघुनाथ की पालकी और रथ निकालता है, तो यहां पुलिस नहीं बल्कि उनके आगे चलने वाले देवता नाग धूमल यातायात का नियंत्रण करते हैं. देवता नाग धूमल का रथ आगे चलता है और सबको हटाता हुआ भगवान भगवान रघुनाथ के लिए रास्ता बनता है.
1661 से मनाया जा रहा है कुल्लू दशहरा
कुल्लू का अंतरराष्ट्रीय दशहरा अबकी बार 370वां के रूप में मनाया जा रहा है. दशहरा उत्सव में आज भी देवताओं की परंपराओं का निर्वहन उसी रूप में किया जा रहा है. 1661 से शुरू हुए कुल्लू दशहरा उत्सव के स्वरूप में समय के साथ बदलाव आया है. कुछ परंपराएं आधुनिक रूप ले चुकी हैं, तो कुछ का निर्वहन जस का तस है. दरअसल जिला कुल्लू के हर गांव में अपना-अलग देवता हैं. त्रिदेव (बह्मा, विष्णु, महेश) के अलावा यहां देवी, ऋषि, मुनि, नाग, यक्ष, पांडव, सिद्ध और योगिनियों को पूजा जाता है.
पुराने समय में भी देवता जिस तरह भगवान रघुनाथ जी के दर शीश नवाते थे, आज भी यह परंपरा कायम है. आज भी देवताओं को लेकर लोग मीलों पैदल कुल्लू दशहरा में पहुंचते हैं और वैसे ही भगवान रघुनाथ के रथ के साथ चलते हैं.