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विशेष लेख : पर्यावरण पर हमारा रवैया मानवता के लिए आत्मघाती

आज की पीढ़ी खुले तौर पर उन लोगों से सवाल पूछ रही है, जिन्होंने विकास के नाम पर पर्यावरण का विनाश किया है और पृथ्वी को एक जलते गोले का रूप दे दिया है. यही नहीं, धरती से होने वाले कार्बन उत्सर्जन से वातावरण को खासा नुकसान पहुंच रहा है.

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पर्यावरण को लेकर हमारा आत्मघाती रवैया

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Published : Dec 21, 2019, 10:29 PM IST

Updated : Dec 21, 2019, 10:44 PM IST

महात्मा गांधी ने कहा था कि, 'धरती, जल और वायु हमें उधार में मिले हैं, ये हमें हमारे पूर्वजों से विरासत में नहीं मिले हैं. हमारी जिम्मेदारी है कि हम इन्हें सही हालत में अपनी आने वाली पीढियों को सौंप दें. आज की पीढ़ी खुले तौर पर उन लोगों से सवाल पूछ रही है, जिन्होंने विकास के नाम पर पर्यावरण का विनाश किया है और पृथ्वी को एक जलते गोले का रूप दे दिया है. यही नहीं, धरती से होने वाले कार्बन उत्सर्जन से वातावरण को खासा नुकसान पहुंच रहा है.

स्वीडन की ग्रेटा थनबर्ग ने मैड्रिड में सीओपी 25 सम्मेलन में यह सवाल किया था कि ऐसे समय में, जब हम तेजी से पर्यावरण का विनाश कर रहे हैं, दुनिया के देश इसके समाधान के लिए कोई ठोस कदम उठाते क्यों नजर नही आ रहे हैं?

इस सम्मेलन का लक्ष्य था, 2015 पेरिस समझौते को लागू करना, नए दिशा निर्देशों को बनाना और विश्व के देशों के लिए अपने यहां कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए लक्ष्यों का निर्धारण. लेकिन 14 दिन के इस सम्मेलन से कोई फायदा नही हुआ, क्योंकि इनमें से किसी भी दिशा में कोई समझौता नहीं हुआ.

दुनियाभर में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन सालाना करीब 1.3 टन दर्ज किया गया. इसमें, अमेरिका का हिस्सा 4.5 टन, चीन 1.9 टन, यूरोपीय संघ 1.8 टन, और भारत 0.5 टन रहा.

संयुक्त राष्ट्र ने पिछले साल 59% कार्बन उत्सर्जन करने वाले देशों के नाम जाहिर किए थे. इनमे, चीन (28%), अमेरिका (15%), यूरोपीय संघ (9%), और भारत (7%) शामिल हैं. पेरिस समझौते से एक महीना पहले अमेरिका ने अपने कदम पीछे खींच लिये, इसके चलते चीन और भारत पर अपने यहां कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य निर्धारित करने का दबाव और बढ़ गया है. यह सम्मेलन इन्ही कारणों से महज कागजी खानापूर्ति का मौका बनकर रह गया.

हालांकि भारत ने और देशों से बेहतर प्रदर्शन किया और किसी दबाव में आने से मना करते हुए कहा कि, विकसित देशों को गरीब और विकासशील देशों पर दबाव डालने का कोई हक नही है. पर्यावरण, जो मनुष्य के लिए जीवनदायी है, इन दिनों मनुष्य से ही अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है.

दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि विकास और तरक्की के नाम पर औद्योगिक इकाइयों वाले देश लगातार कार्बन उत्सर्जन से पर्यावरण और वातावरण में जहर घोल रहे हैं.

28 देशों वाले ईयू ने संयुक्त राष्ट्र के जीरो कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य को हासिल करने के लिए अपने को तैयार करने का वादा किया है। इसके चलते भारत और चीन पर भी दबाव बढ़ने लगा है.

वहीं, भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका और चीन ने यह बात रखी है कि विकसित देशों को 2005 के क्योटो प्रोटोकॉल का पालन करना चाहिए, इससे पेरिस समझौते को लागू करने में आसानी होगी.

भारत ने यह साफ कर दिया है कि 2023 में होने वाली पेरिस अकॉर्ड कॉन्फ्रेंस से पहले वो अपने को कॉर्बन उत्सर्जन नियंत्रण के किसी भी लक्ष्य से बाध्य नहीं करेगा.

पेरिस समझौते के छठे आर्टिकल में एक कॉर्बन मार्केट बनाने के बारे में कहा गया है. कई फायदों वाले इस बाजार से, अपने लक्ष्य से ज्यादा कार्बन उत्सर्जन कम करने वाले देशों को, बाकी देश अपना हिस्सा बेच सकते हैं. इस मुद्दे के साथ-साथ, पर्यावरण की समस्याएं झेलने वाले गरीब देशों को अमीर देशों से आर्थिक मदद का मुद्दा भी अगले साल तक के लिए टल गया. अगर विश्वभर में हो रहे कार्बन उत्सर्जन में से 13% के जिम्मेदार 77 देश इस समझौते को मान भी लें, तो कोई खास फायदा नहीं होता दिख रहा है.

क्या रोजाना तेज रफ्तार से खराब होते पर्यावरण के बचाव के लिए महज कागजी बातें कोई उम्मीद जगा सकेंगी? पेरिस समझौते में सभी देशों से औद्योगिक क्रांति से पहले के 2 डिग्री तापमान को बरकरार रखने की बात कही गई है, जिसे ज्यादातर देशों ने मान लिया है.

हालांकि ताजा अनुसंधान इस तरफ इशारा करते हैं कि इसे 3 डिग्री तक रखने की जरूरत है. विश्व अर्थव्यवस्था, समुद्रों के बढ़ते जलस्तर, बाढ़, सूखे आदि से अनछुई नहीं रहती है.

पेरिस समझौते के बाद से विश्व में कॉर्बन उत्सर्जन 4% बढ़ गया है. विशेषज्ञों का कहना है कि अगले 10 सालों तक प्रति साल 7% की दर से क\र्बन उत्सर्जन को कम करने की जरूरत है. अमेरिका और उसके तत्कालीन राष्ट्रपति ओबामा के क्योटो प्रोटेकॉल से बाहर आने के कारण पेरिस समझैता भी कारगर साबित नहीं हुआ.

वहीं चुनावों में जीत के बाद राष्ट्रपति ट्रंप ने पेरिस समझौते से अमेरिका को बाहर कर सारे विश्व में खलबली मचा दी.

एक गैर सरकारी संस्थान, जर्मन वॉच ने वातावरण पर खतरे की अपनी सूची में भारत को 2017 के 14वें से 5वें स्थान पर ला दिया है. अगर दुनिया के सारे देश इस साधारण सी बात को समझने में नाकामयाब रहे कि हमारे पास एक ही धरती है, तो आने वाला समय सारी मानवता के लिए आत्मघाती साबित होगा.

Last Updated : Dec 21, 2019, 10:44 PM IST

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