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Published : Apr 12, 2020, 12:28 PM IST

Updated : May 29, 2020, 12:11 PM IST

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विशेष : जम्मू-कश्मीर का नया नागरिकता कानून और इसके निहितार्थ

देश कोरोना महामारी से जूझ रहा है. वहीं नई दिल्ली में भाजपा की अगुवाई वाली सरकार जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन (राज्य के संशोधन कानून के अनुकूल) आदेश 2020 के माध्यम से केंद्र शासित जम्मू-कश्मीर में अधिवास के गठन की नई परिभाषा प्रस्तुत करने में व्यस्त थी. नई परिभाषा के कारण जम्मू-कश्मीर के पूरे राजनीतिक स्पेक्ट्रम में विरोध था, जो लगातार केंद्र सरकार को अपनी पिछली परिभाषा को संशोधित करके एक नई अधिसूचना जारी करने के लिए मजबूर कर रहा था. हालांकि इस नए कदम ने कुछ राजनेताओं की असहजता को शांत किया है मगर उनकी चिंताएं कम होती नजर नहीं आ रहीं हैं.

editorial on law in jK
प्रतीकात्मक फोटो

इस मुद्दे पर चर्चा करने से पहले, जम्मू-कश्मीर के अधिवास के परिपेक्ष्य की ओर ध्यान आकर्षित किया जाना चाहिए. पांच अगस्त, 2019 तक, जब नई दिल्ली ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाने का फैसला किया, जिसने जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा प्रदान किया हुआ था और तत्कालीन राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों (जम्मू-कश्मीर और लद्दाख) में विभाजित किया, कौन जम्मू-कश्मीर का अधिवासी है और कौन नहीं यह निर्धारित करने का संवैधानिक अधिकार सिर्फ जम्मू-कश्मीर विधानसभा को पास सौंपा गया. इसी प्रसंग में, सिर्फ तय किए गए अधिवासी ही राज्य में नौकरी के लिए आवेदन दे सकते थे (केंद्रीय सिविल सेवा के अलावा) या अचल संपत्ति खरीद सकते थे.

वास्तव में, जम्मू-कश्मीर के अधिवास का मुद्दा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 से भी पहले का है. 1927 और 1932 में तत्कालीन, और राज्य के अंतिम शासक, महाराजा हरि सिंह द्वारा बनाए गए कानूनों ने नागरिकता और नागरिकों के परिचर लाभों को परिभाषित किया था. इन कानूनों को स्वतंत्रता के बाद भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 और 35A में उचित रूप से अपनाया गया था.

सरकार के प्रारंभिक आदेश में जम्मू-कश्मीर के निवासियों के लिए केवल अराजपत्रित पद आरक्षित थे, जिसके कारण सभी प्रमुख राजनीतिक दलों जैसे नेशनल कांफ्रेंस, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और यहां तक कि नए राजनीतिक दल 'अपनी पार्टी', जिसे व्यापक रूप से केंद्र सरकार के समर्थन प्राप्त है, समेत राजनीतिक दायरों में विरोध को दर्ज कराया गया. घाटी में विवाद का जवाब में, नई दिल्ली ने नियमों में संशोधन किया है. अब नियमों अंतिम रूप देते हुए, यह तय किया गया है कि केवल जम्मू-कश्मीर के अधिवासी केंद्र शासित प्रदेश में नौकरियों के लिए आवेदन करने में सक्षम होंगे. नियम यह भी निर्धारित करते हैं कि केंद्रशासित प्रदेश में बाहर के लोग, जो 15 वर्षों से जम्मू-कश्मीर के निवासी हैं, को अधिवासियों के रूप में गिना जाएगा और इसलिए वह भी नौकरियों के लिए आवेदन करने में सक्षम होंगे.

यहां तक कि इन संशोधित नियमों का कश्मीर घाटी के राजनीतिक वर्ग द्वारा विरोध किया जा रहा है. पीडीपी ने कहा कि 'हमारे युवाओं के भविष्य को सुरक्षित बनाने के साथ-साथ, भारत सरकार को जम्मू-कश्मीर की जनसांख्यिकी पर हमले के बारे में फैली आशंका को संबोधित करना चाहिए. सांकेतिक रियायत, जिसमें पिछला दरवाजा नए अधिवासियों के लिए खुला छोड़ दिया गया है, वह सिर्फ जानलेवा महामारी के दौरान केंद्र सरकार द्वारा हड़बड़ी में पिछले नियमों के कलंक को कम करने की मात्र एक कोशिश है.'

राज्य और इसकी राजनीतिक और जातीय रचना पर पड़ने वाले स्थाई प्रभाव के अलावा, संशोधन से पहले वाले कानून के बारे में वर्त्तमान चिंताएं भी थीं. रिपोर्टों के अनुसार, केंद्र शासित जम्मू-कश्मीर में लगभग 84,000 नौकरी की रिक्तियां हैं और इन नियमों के नई अधिवासियों की भर्ती की प्रक्रिया के लिए प्रमुख निहितार्थ होंगे जो संशोधन के बाद कम गंभीर होंगे.

केंद्र सरकार ने पहले स्थिति को अच्छी तरह भांपते हुए इसे खूब बढ़ाया (यह कहते हुए कि गैर मूल निवासी गैर-राजपत्रित नौकरियों को छोड़कर सभी नौकरियों के लिए आवेदन कर सकते हैं) और फिर नियमों में संशोधन करके रियायतें दे दीं.

निर्णय का समय
हैरान करने वाली बात है(या शायद नहीं) समय जब जम्मू-कश्मीर के नए अधिवास कानूनों को लागू किया गया. ऐसे में जब सारा देश कोविड-19 के प्रकोप से जूझ रहा है, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने नए कानूनों को लागू करना उचित समझा. इस अनुपयुक्तता के बावजूद, मंत्रालय का तर्क यह हो सकता है कि कोविड-19 के कारण लगाए गए प्रतिबंधों को देखते हुए, अधिसूचना के खिलाफ घाटी में बहुत कम सड़क पर विरोध होगा. यह विश्लेषण सटीक साबित हुआ. यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि दो रसूखदार राजनीतिक कैदियों-पूर्व मुख्यमंत्रियों फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला की रिहाई, जो कड़े सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम के तहत हिरासत में थे - को भी कोविड-19 के प्रकोप के दौरान समयबद्ध किया गया था. जो कश्मीरियों के लिए एक जश्न मनाने का मौक़ा हो सकता था खास तौर पर नेशनल कांफेरेंस के समर्थकों के लिए, जो सड़क पार आकर अपनी खुशी जाहिर करते, या केंद्र सरकार के प्रति अपनी नाराजगी दिखाते वह स्वाभाविक स्वरों में अभिव्यक्त नहीं हो पाया.

निहितार्थ
यह सच है कि जम्मू-कश्मीर में अधिवास कानूनों सहित नए कानूनों को लागू किया गया है, यह दर्शाता है कि केंद्र सरकार राज्य के विशेष दर्जे पर लिए अपने पांच अगस्त के फैसले को पलटने के लिए उत्सुक नहीं नजर आ रही है. जब तक केंद्र में नई सरकार का गठन होगा तब तक कानूनी रूप से कहें तो जम्मू-कश्मीर को संघ शासित प्रदेश के रूप में बाकी हिस्सों में अच्छी तरह से एकीकृत कर दिया गया होगा कि उसका अपनी पूर्व की स्थिति में वापस जा पाना बहुत मुश्किल होगा.

हालांकि यह जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा वापस पाने की संभावना को नकार नहीं सकता है. तथ्यात्मक रूप से, नई दिल्ली में नेताओं ने बार-बार दोहराया है कि जम्मू-कश्मीर को एक दिन अपना राज्य होने का दर्जा वापस मिल सकता है. जम्मू-कश्मीर में बनाए जाने वाले नए कानून उसके विशेष दर्जे को बदल सकते हैं लेकिन उसके राज्य के दर्जे को नहीं. इस प्रकार, यह स्पष्ट कर देने से कि विशेष दर्जा किसी भी बातचीत से परे है, नई दिल्ली द्वारा जम्मू कश्मीर के राजनीतिक वर्ग का सारा ध्यान राज्य के मुद्दे पर केंद्रित रखा जाएगा, परिणाम जो नई दिल्ली द्वारा नापसंद करे जाने का कोई कारण नहीं है.

(लेखक-हैप्पीमन जैकब, एसोसिएट प्रोफेसर, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय)

Last Updated : May 29, 2020, 12:11 PM IST

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