नई दिल्ली : टाटा न्यास की रिपोर्ट के मुताबिक लोगों को न्याय देने के मामले में महाराष्ट्र शीर्ष पर है जबकि केरल, तमिलनाडु, पंजाब और हरियाण क्रमश: दूसरे, तीसरे, चौथे और पांचवे स्थान पर हैं.
छोटे राज्यों (जहां की आबादी एक करोड़ से कम है) में न्याय देने के मामले में गोवा शीर्ष स्थान है. दूसरे और तीसरे स्थान पर क्रमश: सिक्किम और हिमाचल प्रदेश रहे.
'भारत न्याय रिपोर्ट-2019' सार्वजनिक रूप से न्याय प्रदान करने के चार स्तंभों पुलिस, न्यायपालिका, कारागार और कानूनी सहायता पर उपलब्ध सरकारी संस्थाओं के आंकड़ों पर आधारित है.
जानकारी से संबंधित आंकड़े रिपोर्ट को जारी करते हुए उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश एमबी लोकुर ने कहा कि इससे रेखांकित होता है कि न्याय प्रदान करने की प्रणाली में बहुत गंभीर खामी है.
न्यायमूर्ति लोकुर ने कहा, 'यह पथप्रदर्शक अध्ययन है जिसके नतीजों से साबित होता है कि निश्चित तौर पर हमारे न्याय प्रदान करने की प्रणाली में बहुत गंभीर खामी है. हमारी न्याय प्रणाली की चिंताओं को मुख्यधारा में लाने का यह सर्वोत्तम प्रयास है जो समाज के हर हिस्से, शासन और अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता है.'
उन्होंने कहा, 'मुझे उम्मीद है कि न्यायपालिका और सरकार इन प्रासंगिक नतीजों पर संज्ञान लेंगी और राज्य भी पुलिस प्रबंधन, कारागार, फॉरेंसिक, न्याय प्रदान करने की प्रणाली और कानूनी सहायता के अंतर को पाटने के लिए तुरंत कदम उठाएंगे एवं रिक्तियों को भरेंगे.'
जानकारी से संबंधित आंकड़े यह रैंकिंग टाटा न्याय की पहल है जिसे 'सेंटर फॉर सोशल जस्टिस, कॉमन कॉज, राष्ट्रमंडल मानवाधिकार पहल, दक्ष, टीआईएसएस, कानूनी नीति के लिए प्रयास एवं विधि केंद्र के सहयोग से तैयार किया गया है.
रिपोर्ट के मुताबिक देश में न्यायाधीशों के कुल 18,200 पद स्वीकृत हैं जिनमें से 23 फीसदी रिक्त हैं.
रिपोर्ट में कहा गया, 'न्याय के इन स्तंभों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत कम है. पुलिस में केवल सात फीसदी महिलाएं कार्यरत हैं. जेलों में क्षमता के मुकाबले 114 फीसदी कैदी हैं. इनमें से 68 प्रतिशत विचाराधीन हैं जिनके मामलों की जांच की जा रही है या सुनवाई चल रही है. बजट के मामले में अधिकतर राज्य केंद्र की ओर से आवंटित बजट का इस्तेमाल नहीं कर पाते, पुलिस, कारावास और न्यायपालिका का खर्च बढ़ने के बावजूद उस गति से राज्य का खर्च नहीं बढ़ा है.'
इसमें कहा गया, 'कुछ स्तंभ कम बजट की वजह से प्रभावित है. भारत में मुफ्त कानूनी सहायता पर प्रति व्यक्ति खर्च मात्र 75 पैसे प्रति वर्ष है जबकि 80 फीसदी आबादी मुफ्त कानूनी सहायता पाने की अर्हता रखती है.
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रिपोर्ट में राज्य की ओर से न्याय देने की क्षमता का आकलन करने के लिए चार स्तभों के संकेतकों का इस्तेमाल किया गया है. ये हैं अवसंरचना, मानव संसाधन, विविधता (लिंग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग), बजट, काम का दबाव और गत पांच साल की प्रवृत्ति.
देश में बड़े और मध्यम आकार के राज्यों में निचली अदालतों में महिला न्यायाधीशों की सर्वाधिक संख्या तेलंगाना में है तथा बिहार इस मामले में सबसे पीछे है. वहीं, सात राज्य ऐसे हैं जहां के उच्च न्यायालयों में एक भी महिला न्यायाधीश नहीं है.
जून 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार तेलंगाना में निचली अदालतों में महिला न्यायाधीशों की भागीदारी का आंकड़ा 44 प्रतिशत है जो देश में सर्वाधिक है. वहीं, बिहार में 11.5 प्रतिशत के आंकड़े के साथ महिला न्यायाधीशों की सबसे कम भागीदारी है.
जानकारी से संबंधित आंकड़े टाटा ट्रस्ट्स' इंडिया जस्टिस रिपोर्ट-2019 के अनुसार न्यायपालिका में महिलाओं की भागीदारी कम हुई है और लैंगिक विविधता के महत्व की व्यापक स्वीकृति के बावजूद राज्यों की अदालतों में महिलाओं की वास्तविक संख्या निराशाजनक है.
रिपोर्ट में कहा गया है, 'बड़े और मध्यम आकार के राज्यों में निचली अदालतों में तेलंगाना में 44 प्रतिशत से थोड़ी अधिक, महिलाओं की सर्वाधिक भागीदारी है, लेकिन उच्च न्यायालय के स्तर पर यह संख्या केवल 10 प्रतिशत है.'
इसमें कहा गया है, 'इसी तरह पंजाब में अधीनस्थ स्तर पर महिलाओं की भागीदारी 39 प्रतिशत और उच्च न्यायालय स्तर पर यह 12 प्रतिशत है.'
रिपोर्ट में कहा गया है कि यही ढर्रा लगभग हर जगह प्रतीत होता है, सिवाय तमिलनाडु के, जिसने इस ढर्रे को तोड़ा है जहां उच्च न्यायालय स्तर पर 19.6 प्रतिशत के आंकड़े के साथ सर्वाधिक महिला न्यायाधीश हैं. वहीं, इस राज्य की निचली अदालतों में महिलाओं के लिए आरक्षित 35 प्रतिशत पदों से अधिक महिला न्यायाधीश हैं.
टाटा ट्रस्ट की रिपोर्ट में 18 बड़े और मध्यम आकार के तथा सात छोटे आकार वाले राज्यों का विवरण जुटाया गया. छोटे राज्यों में मेघालय में निचली अदालतों में सर्वाधिक 74 प्रतिशत तथा गोवा में 66 प्रतिशत महिला न्यायाधीश हैं.