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आपदा की स्थिति में मीडिया के महत्व को पहचानना बेहद जरूरी है

अमर्त्य सेन जैसे विश्लेषकों ने कहा कि जब अकाल और महामारी जैसे खतरे होते हैं तो पत्रकार महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और ये कलम योद्धा तानाशाही समाजों की बजाय लोकतांत्रिक देशों में ज्यादा आजादी से काम करते हैं. कोई भी सरकार जो न्यूनतम संसाधनों को अधिकतम लाभ के रूप में भुनाना चाहती है विशेष रूप से आपदाओं की स्थिति में ऐसे में मीडिया के महत्व को पहचानना चाहिए और इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करना चाहिए.

सत्य की खोज में पत्रकारिता
सत्य की खोज में पत्रकारिता

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Published : Jun 22, 2020, 4:22 PM IST

हैदराबादः भारतीय संस्कृति ने हमें हमेशा सिखाया कि सत्यमेव जयते यानि सत्य की जीत होती है. सत्य हमेशा आगे रहेगा. इस दष्टिकोण को भारतीय संविधान में भी महत्व दिया गया है. भारतीय संविधान में राइट टू स्पीच एक महत्वपूर्ण अधिकार है. पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना गया है. पत्रकारिता जो सत्य की खोज और इसकी वकालत से ही जुड़ी है. अभिव्यक्ति की इस स्वतंत्रता को सिर्फ इसलिए रौंदा जाता है क्योंकि यह हमपर शासन कर रहे लोगों के अवांछित और दुखद सत्य सामने लाती है. ऐसा करना लोकतंत्र की भीषण त्रासदी होगी.

कोरोना महामारी के खिलाफ लड़ाई में भाग ले रहे डॉक्टर, स्वास्थ्य कार्यकर्ता, पुलिस और सैनिटरी कर्मचारियों जैसे बाकी फ्रंट-लाइन योद्धाओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करने वाले पत्रकार भी शामिल हैं. पत्रकार वे पथ प्रदर्शक हैं जो नागरिकों की सार्वजनिक सुरक्षा और प्रदान की जा रही स्वास्थ्य सेवाओं में कमियों का दर्पण दिखाकर अधिकारियों को आगे का रास्ता दिखा रहे हैं. ऐसे पथ प्रदर्शक पर झूठे मुकदमे दर्ज करना, उन पर अत्याचार करना दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की भावना पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है.

प्रधानमंत्री मोदी ने मार्च के अंतिम सप्ताह में 'मन की बात' में कहा कि हमें अग्रिम पंक्ति के योद्धाओं से प्रेरणा लेनी चाहिए जैसे कि डॉक्टर, नर्स और सैनिक जो कोरोना महामारी से युद्ध लड़ रहे हैं. केंद्र सरकार ने ये भी कहा कि स्वास्थ्य कर्मचारियों के खिलाफ हिंसा बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. देश भर के कई डॉक्टर यह कहते रहे हैं कि वायरस से बचाने के लिए पर्सनल प्रोटेक्शन इक्विपमेंट (पीपीई) की कमी है. सर्वोच्च न्यायालय के शामिल होने के बाद भी यह नहीं कहा जा सकता है कि स्थितियों में सुधार हुआ है.

कहने की जरूरत नहीं है कि देश की राजधानी में स्थिति बहुत खराब है. सरकार द्वारा एक प्राथमिकी भी दर्ज की गई थी. एक डॉक्टर को निलंबित भी कर दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट जिसने इसे गंभीरता से लिया है कहा कि दिल्ली सरकार को बदले की कार्रवाई के बजाय मामलों की स्थिति में सुधार किया जाना चाहिए. सिर्फ दिल्ली ही नहीं, बल्कि कई अन्य जगहों पर भी पत्रकारों की आवाज को दबाने के लिए सरकारों द्वारा इस तरह के कृत्यों का सहारा लिया जाता है.

जब कोरोना महामारी भयंकर रूप से फैलने लगी और दुनिया भर के हजारो लोग इससे प्रभावित होने लगे ये कलम-योद्धा ही थे जिन्होंने इसकी भयावहता को सभी के नोटिस में लाया और सरकारों को शर्मिंदा किया. ऐसी सरकारों ने पत्रकारों और मीडिया पर झूठे आरोप लगाना शुरू कर दिया. लोगों की परिस्थितियों को उजागर करने और लॉकडाउन नियमों का पालन न करने के लिए 55 पत्रकारों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है.

यूपी सरकार इस खबर से नाराज थी कि प्रधानमंत्री मोदी के गोद लिए गए वाराणसी के गांव में लॉकडाउन के दौरान लोग भूख से मर रहे थे. सुप्रिया शर्मा के स्क्रॉल-इन पोर्टल खिलाफ कई मामले दर्ज किए गए जिन्होंने लॉकडाउन के दौरान डोमरी गांव के लोगों के अनुभवों एक श्रृंखला लिखी थी. इस तथ्य में कुछ भी गलत नहीं है कि लॉकडाउन के दौरान सार्वजनिक वितरण प्रणाली की शिथिलता, नौकरशाही की अक्षमता, और भ्रष्टाचार भोजन की कमी और लोगों की परेशानियों का कारण बने. हालांकि मायादेवी नाम की एक महिला ने शिकायत की कि उसे समाचार में गलत तरीके से पेश किया गया और उसने संबंधित पत्रकार के खिलाफ, एससी और एसटी एक्ट के तहत आईपीसी की धारा 269 (जानलेवा महामारी) और धारा 501 (मानहानि प्रकाशन) के तहत शिकायत दर्ज कराई थी.

'द वायर' के संपादक सिद्धार्थ वरदराजन पर दो प्राथमिकी दर्ज की गई क्योंकि उन्होंने समाचार प्रकाशित किया कि यूपी के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ 25 मार्च 2020 को लॉकडाउन के नियमों के खिलाफ अयोध्या में एक धार्मिक अभियान में भाग लेने गए थे. जबकि कोरोना संकट से निपटने के लिए कहा जाता है कि टीम बनाकर ही इसके खिलाफ युद्ध लड़ा जा सकता है ऐसे में इस तरह के असहिष्णुता और बदले की कार्रवाई क्या संदेश देती है.

महात्मा गांधी ने कहा कि जब भी अखबार सच बोलने के लिए स्वतंत्र होते हैं और सच को प्रकाशित करते हैं तो क्या ये सच्ची अभिव्यक्ति नहीं है. मामलों को दर्ज करने और पत्रकारों को प्रताड़ित करने के मामले पर द एडिटर्स गिल्ड ने गंभीर चिंता जाहिर की है.

अमर्त्य सेन जैसे विश्लेषकों ने कहा कि जब अकाल और महामारी जैसे खतरे होते हैं तो पत्रकार महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और ये कलम योद्धा तानाशाही समाजों की बजाय लोकतांत्रिक देशों में ज्यादा आजादी से काम करते हैं. कोई भी सरकार जो न्यूनतम संसाधनों को अधिकतम लाभ के रूप में भुनाना चाहती है विशेष रूप से आपदाओं की स्थिति में ऐसे में मीडिया के महत्व को पहचानना चाहिए और इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करना चाहिए.

देश भर के न्यायालयों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बचाना चाहिए. यह देखना अदालतों की ज़िम्मेदारी है कि कोई भी सरकार इस अधिकार के खिलाफ न जाए. प्रत्येक नागरिक को सरकारी मशीनरी की आलोचना करने का अधिकार है. बॉम्बे हाईकोर्ट ने लगभग पांच साल पहले ही फैसला सुनाया था कि अगर हिंसा का कोई भी मामला है तो सरकार किसी पर भी देशद्रोह का मुकदमा कर सकती है. फिर भी जो सरकारें उनके बारे में लिखी जा रही कड़वी सच्चाइयों को बर्दाश्त नहीं कर पा रही हैं वे लोकतांत्रिक मूल्यों का मखौल उड़ाने की पुरजोर कोशिश कर रही है. इससे नागरिकों के अधिकारों का हनन होता है. क्या आप इसे नकार पाएंगे

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