अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की कथनी और करनी के फ़र्क़ ने सारी दुनिया को अचंभे में डाल दिया है. ट्रंप ने अमेरिका को जंग के बोझ से आजाद करने के लिए कई देशों से उसकी सेना को वापस बुलाने का वादा किया था, लेकिन इसके बावजूद अमेरिका ने पश्चिम एशिया में अपने बल का प्रयोग किया, जिसके चलते यहां हालात बिगड़ गए. 2011 में ट्रंप लगातार इस बात को कहते रहे थे कि, चुनाव जीतने के लिए ओबामा ईरान पर हमला करेंगे और अब जब वो खुद देश के मुखिया के तौर पर महाभियोग का सामना कर रहे हैं, तो ऐसे में उनके द्वारा तेहरान पर हमला सवालों को खड़ा करता है.
दिसंबर 1998 में, देश में एक महाभियोग जांच के दौरान, तत्तकालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने इराक़ पर यह कहते हुए हमला कर दिया था कि इससे आने वाले समय में बड़ी जंग को रोका जा सकेगा. और अब ट्रंप ने ईरान के वरिष्ठ सैन्य जनरल सुलेमानी को बग़दाद हवाई अड्डे पर एक ड्रोन हमले में मार गिराया है. इसके लिये ट्रंप और उनके प्रशासन ने दलील दी कि, सुलेमानी न केवल दिल्ली से लेकर लंदन तक आतंकी हमलों की साज़िश में शामिल थे, बल्कि दो दशकों से पश्चिम एशिया में हालातों को ख़राब करने में अहम रोल अदा कर रहे थे. हालांकि, अमेरिका इस बात को भी नहीं झुठला सकता कि इराक़ और सीरिया से आईएसआईएस के ख़ात्मे के लिये उसने सुलेमानी से बाहरी मदद भी ली है.
ओबामा प्रशासन ने अल क़ायदा के मुखिया ओसामा बिन लादेन को मार गिराया था और ट्रंप प्रशासन ने आईएसआईएस के प्रमुख अबु बकर अल बगदादी को ढेर किया. ये दोनों ही निजी व्यक्ति थे और आतंकी संगठनों के प्रमुख भी थे. इसके उलट, अमेरिका ने एक ख़ास रणनीति के तहत सुलेमानी का ख़ात्मा किया है. सुलेमानी न केवल ईरान के राष्ट्रपति खुमेनी के करीबी थे, बल्कि पश्चिम एशिया में ईरान के वर्चस्व को बढ़ाने वाले रणनीतिकारों में भी शामिल थे. अब ईरान उनकी मौत का बदला लेने की तैयारियां कर रहा है. अमेरिकी एक्शन के कारण, विश्व समुदाय अब एक जंग जैसे हालातों के ख़तरे से दो चार हो रहा है. यह हालात पश्चिम एशिया के इतिहास में काफ़ी ख़राब स्थिति बयान करते हैं.
अमेरिका ने अपनी तकात के इस्तेमाल से जो ग़लत फ़ैसले लिए हैं, वो हाल के दो निर्णयों में दिखते हैं. पहला, पर्यावरण पर हो रहे कुप्रभावों से बचने के लिये किये गये पैरिस समझौते से अमेरिका का हाथ खींचना और दूसरा, ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर नकेल कसने वाली संधि को तोड़ना. शायद इसिलये ट्रंप प्रशासन की कथनी और करनी में फ़र्क़ है, क्योंकि इन दोनों ही फ़ैसलों को लेते हुए अमेरिका ने एकतरफ़ा रुख़ इख्त्यार किया.
ईरान से परमाणु संधि तोड़ने से पहले भी अमेरिका ने दो विवादास्पद फ़ैसले लिये थे. इनमें से एक था, जेरूसलम को इज़रायल की राजधानी के तौर पर मान्यता देना. वहीं, ईरान को आर्थिक तौर पर नुक़सान पहुंचाने के लिये अमेरिका ने ईरान से तेल की ख़रीद पर पूरी तरह रोक लगा दी थी. पिछले साल जून में, खाड़ी में दो तेल के जहाज़ों पर हमले और अमेरिकी नौसेना के ड्रोन विमान के मार गिराने के बाद से ही, अमेरिका और ईरान के बीच जंग जैसे हालात थे.