मुरैना। मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश व राजस्थान राज्य की त्रिशंकु सीमा से घिरा चंबल अंचल कभी बागियों की शरणस्थली के लिए जाना जाता था, जहां कुख्यात डकैतों का बोलबाला रहता था. उस दौर में जब भी कोई हथियार उठाता था तो अगली सुबह उसकी चंबल के बीहड़ों में ही होती थी क्योंकि तब डकैतों के लिए ये सबसे मुफीद जगह मानी जाती थी. उसी दौर में गांधीजी अहिंसा के अस्त्र से अंग्रेजों को धूल चटा रहे थे, जिसका इन डकैतों के मन पर गहरा असर पड़ा और सैकड़ों डकैत गांधीजी की विचारधारा से प्रभावित होकर शांति का रास्ता अख्तियार करने का मन बनाया.
जब चंबल का नाम सुन बड़े-बड़े सूरमा के हलक सूख जाते थे, तब बीहड़ में गोलियों की ठांय-ठांय और बगावत की उठती लपटों में इंसानियत जल रही थी, ऊबड़-खाबड़ पहाड़ियां और उस पर उगी कटीली झाड़ियों के बीच से निकलते रास्ते, जिनकी कोई मंजिल ही नहीं थी. तब एक विचारधारा ने इस खूनी रास्ते को खुशहाली की मंजिल दी, जिसने गोलियों की गूंज को शांत कर दिया, बदले की चिनगारी को बुझा दिया और दहशत के पर्याय रहे सैकड़ों डाकुओं को हथियार डालने के लिए मजबूर कर दिया. जिसे लोग महात्मा गांधी के नाम से जानते हैं. उन्हीं के विचारों को आत्मसात कर इन्होंने हिंसा का रास्ता हमेशा के लिए छोड़ दिया.
बीहड़-बागी के लिए बदनाम चंबल में जब गोलियों की ठांय-ठांय से चीख-पुकार मच जाती थी, गमगीन सन्नाटा पसर जाता था, चंबल का नाम सुन लोग अंदर तक कांप जाते थे. तब गांधीवादी विचारक एसएन सुब्बाराव और जयप्रकाश नारायण के अलावा राम चरण मिश्रा ने 'चंबल की बंदूकें गांधीजी के चरणों में' नाम से एक मुहिम शुरू की. जिसके बाद 2 दिसंबर 1973 को एक विशाल जनसभा में नामी डकैतों सहित 400 से अधिक डाकुओं ने हथियार रख शांति-सद्भाव के रास्ते पर निकल पड़े, फिर यहीं से चंबल अंचल में शांति की नई सुबह हुई, जिसके बाद से इसके माथे पर लगा कलंक धीरे-धीरे धुलने लगा.