नई दिल्ली : पूर्व केंद्रीय मंत्री अरूण शौरी ( Former union minister Arun Shourie ) ने उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) का रुख कर राजद्रोह कानून को 'असंवैधानिक' घोषित करने का अनुरोध किया, क्योंकि इसका भारी दुरूपयोग हुआ है और वाक एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्तेमाल करने को लेकर नागरिकों के खिलाफ मामले दर्ज किए जा रहे हैं.
याचिका, शौरी और गैर सरकारी संस्था (एनजीओ) कॉमन कॉज की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण (Advocate Prashant Bhushan) ने दायर की है.
यह याचिका ऐसे दिन दायर की गई है, जब प्रधान न्यायाधीश एन वी रमना की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस कानून के भारी दुरूपयोग पर चिंता जाहिर की और केंद्र से सवाल किया कि स्वतंत्रता संग्राम को दबाने के वास्ते महात्मा गांधी जैसे लोगों को चुप कराने के लिए ब्रिटिश शासनकाल में इस्तेमाल के लिए प्रावधान को समाप्त क्यों नहीं किया जा रहा.
पीठ ने एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया और एक पूर्व मेजर जनरल द्वारा दायर याचिकाओं की पड़ताल करने पर सहमति जताई और कहा कि मुख्य चिंता 'कानून का दुरूपयोग' है. इन याचिकाओं के जरिए इस कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है.
भारतीय दंड संहिता की धारा 124 (ए) एक गैर जमानती प्रावधान है. इसके तहत तीन साल तक की कैद की सजा और जुर्माने का प्रावधान है.
शौरी की याचिका में दावा किया गया है कि राजद्रोह की परिभाषा (आईपीसी की धारा 124 ए) अस्पष्ट है.
यह भी पढ़ें-आजादी के 75 साल बाद भी राजद्रोह कानून की जरूरत क्यों : सुप्रीम कोर्ट
याचिका में कहा गया है कि यह एक औपनिवेशिक कानून है और इसका इस्तेमाल भात में ब्रिटिश शासन द्वारा असहमति की आवाज को दबाने में किया जाता था.
याचिका में 'केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य' , 1962 के वाद पर उच्चतम न्यायालय की व्याख्या का जिक्र किया गया है. याचिका में कहा गया है कि आईपीसी की धारा 124 ए की जो व्याख्या इस वाद में शीर्ष न्यायालय ने की थी, उसे पुलिस ने ना तो समझा और ना ही उस पर ध्यान दिया, जिस कारण वाक एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्तेमाल कर रहे नागरिकों के खिलाफ मामले दर्ज किया जाना जारी है.
याचिका में कहा गया है कि भारत के लोकतंत्र बनने के बाद, इस कानून को संविधान के अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त बोलने एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मूल अधिकार का हनन करने वाला बताते हुए 1962 में केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में चुनौती दी गई.
याचिका में कहा गया है कि उच्चतम न्यायालय ने 1962 में प्रावधान कायम रखा, लेकिन तब से कानून की स्थिति में बदलाव हुआ और इस विषय पर पुनर्विचार करने की जरूरत है.
याचिका में कहा गया है कि इन परिस्थितियों में यह दलील दी जाती है कि इस न्यायालय को केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य के फैसले पर पुनर्विचार करने और आईपीसी की धारा 124 ए रद्द करने की जरूरत है, जो कि अनुच्छेद 14(कानून के समक्ष समानता) , 19 (1) (ए) (वाक एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और 21 (जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण) का हनन करता है.
याचिका के जरिए आईपीसी की धारा 124 (ए) को असंवैधानिक घोषित करने के लिए निर्देश देने का अनुरोध किया गया है.
(पीटीआई भाषा)