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चुनाव में वोट डालने आए प्रवासी कामगारों की मौत, लोकतंत्र में बलिदान सिर्फ उनके हिस्से?

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Published : Apr 14, 2021, 10:51 PM IST

पश्चिम बंगाल के कूच बिहार में सीतलकुची में मतदान के दौरान मारे गए चार लोगों में से दो प्रवासी मजदूर थे. ये प्रवासी मजदूर 2011 से ममता बनर्जी के पीछे खड़े थे और उनके राज्य सचिवालय में जाने का मार्ग प्रशस्त कर चुके थे. तो क्या प्रवासी कामगारों की किस्मत में सिर्फ नेताओं का भाग्य चमकाना और मर जाना ही लिखा है?

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कोलकाता :पश्चिम बंगाल चुनावों की हिंसा में चार कामगारों की जिंदगी भेंट चढ़ गई. लेकिन सवाल यह है कि क्या वे लॉकडाउन के बाद फिर से टीएमसी के लिए वोट करेंगे? मालदा नादिया, उत्तर 24 परगना और मुर्शिदाबाद जिलों में वोटिंग के बाद यह प्रश्न बहुत बड़ा बन गया है.

पिछले साल लॉकडाउन शुरू होने के बाद प्रवासी श्रमिकों की दयनीय स्थिति स्पष्ट हो गई थी. वे अपने राज्यों में अपने घरों तक पहुंचने के लिए हजारों किलोमीटर तक पैदल चले. उनमें से कई लोग बीच रास्ते में ही मर गए. यह तब हुआ जिस समय केंद्र और राज्य सरकारें एक-दूसरे पर आरोप मढ़ रही थीं. पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में इस बार भी हिरन का यही खेल जारी है.

मारे गए चार में दो प्रवासी कामगार

अब एक साल के लॉकडाउन के बाद भी सीतलकुची में प्रवासी श्रमिकों के मामलों की दयनीय स्थिति स्पष्ट हो गई है. क्योंकि केंद्रीय बलों की गोलीबारी में मारे गए चार में से दो प्रवासी श्रमिक थे. वे वोट डालने के लिए अपने गांवों में वापस आए थे. वे सिर्फ लोकतंत्र के त्योहार का हिस्सा बनना चाहते थे. लेकिन अंततः उनका इस प्रक्रिया में बलिदान कर दिया गया.

किसको दोष दें, किसे मानें अपना

मारे गए चार लोगों में से एक नूर आलम था जिसकी उम्र महज 20 साल के आसपास थी. वह सिर्फ वोट डालने आया था. इलाके में तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी के बीच की खींचतान में उनका कोई संबंध नहीं था. वह वोटों के बाद बेंगलुरु जाने वाला था लेकिन ऐसा कभी नहीं होगा. आलम के पिता जावेद अली स्थानीय ईंट भट्ठा पर काम करते हैं. वे सिर्फ अपने बेटे के आकस्मिक और दुर्भाग्यपूर्ण निधन को स्वीकार करते हैं. धान के खेत पर उनके बेटे की यादें अभी भी उन्हें परेशान करती हैं.

इनका आखिर क्या कूसूर था

एक अन्य शिकार साम्युल था जो पेशेवर जरूरतों के लिए गंगटोक में रहा करता था. वह सीतलकुची में मतदान से एक दिन पहले ही अपने गांव वापस आया था. लेकिन उनके परिवार पर आफत आ गई. कोई सोच भी नहीं सकता था कि उसे इतनी कम उम्र में अपने जीवन का बलिदान करना होगा. अन्य पीड़ित भी दैनिक वेतन भोगी थे. वे अपनी आजीविका कमाने के लिए कई बार राज्य से बाहर भी जाते थे.

प्रवासियों से किया वादा रहा अधूरा

प्रवासी श्रमिकों ने 2011 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में महत्व प्राप्त करना शुरू कर दिया था. इन प्रवासी श्रमिकों में से अधिकांश बंगाल में आए और फिर कुछ दिनों के लिए शासन परिवर्तन के साधन का एक हिस्सा बन गए. उनके समर्थन से ममता बनर्जी को 34 साल पुराने वाम मोर्चे के शासन को खत्म कर दिया. शासन के परिवर्तन के बाद प्रवासी श्रमिकों के लिए वादों की बाढ़ आ गई लेकिन शायद ही उन वादों को कभी पूरा किया गया. इसका नुकसान भी प्रवासी श्रमिकों को ही उठाना पड़ा.

फिर लगी वादों की अंतहीन झड़ी

ममता बनर्जी ने लॉकडाउन के दौरान प्रवासी श्रमिकों के लिए पर्याप्त व्यवस्था करने का वादा किया ताकि उन्हें आजीविका के लिए राज्य न छोड़ना पड़े. लेकिन यह वादा पूरा नहीं हुआ. ऐसा इसलिए क्योंकि राज्य में शायद ही कोई रोजगार सृजन हुआ और मजदूर फिर से आजीविका के लिए दूसरे राज्यों में जाने लगे थे.

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चुनाव अभियान के दौरान इस बार भी प्रवासी श्रमिकों के लिए वादों की बौछार की गई है. लेकिन वास्तविकता यही है कि प्रवासी श्रमिकों में से दो मारे गए. वह भी तब, जब वे राज्य में लोकतंत्र के त्योहार का हिस्सा बनने के लिए आए थे. इस पर सवाल उठता है कि क्या प्रवासी कामगार सिर्फ वोट बैंक हैं.

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