रायपुर:छत्तीसगढ़ में 15 साल का वनवास खत्म कर सत्ता में आई कांग्रेस की जीत में आदिवासियों का बड़ा योगदान रहा है. आदिवासी बहुल छत्तीसगढ़ में आदिवासी सीट सत्ता की चाबी मानी जाती है. यही कारण है कि 2018 के विधानसभा चुनाव (Chhattisgarh Assembly Election Results 2018) में कांग्रेस ने 29 आदिवासी सीटों में से 25 पर शानदार जीत दर्ज की थी. हाल ही में सिलगेर समेत कई आंदोलनों के बाद भूपेश सरकार से आदिवासी समाज नाराज चल रहा है. नाराजगी इतनी कि 19 जुलाई से सरकार के खिलाफ सर्व आदिवासी समाज (Sarva Adivasi Samaj Chhattisgarh) बेमियादी धरने पर बैठने वाला है. इससे ये चर्चा तेज हो गई है कि कहीं आदिवासी समाज सरकार से नाखुश तो नहीं है.
आखिर भूपेश सरकार से क्यों खुश नहीं है आदिवासी समाज दरअसल, सिलगेर (silger protest) की घटना के बाद आदिवासी समाज सरकार से सीधा नाराज बताया जा रहा है. जानकारों की मानें तो आदिवासी समाज सरकार से त्वरित कार्रवाई चाहता था. मगर सरकार ने काफी देर कर दी. वहीं भूपेश सरकार (bhupesh government) ने चुनाव आने से पहले से वादा आदिवासियों से किया था. वह अब तक पूरा नहीं हो पाया है. हालांकि नाराज लोगों को साधने के लिए हाल ही में प्रदेश सरकार ने मंत्रियों के प्रभार वाले जिलों में बदलाव किया था. जिसमें सरकार ने मंत्री कवासी लखमा को बस्तर के पांच जिलों का प्रभार दे कर समाज को साधने की जिम्मेदारी दी है.
अनेदखी को लेकर सरकार से नाराज आदिवासी समाज
छत्तीसगढ़ में सरगुजा से लेकर बस्तर तक और मानपुर से लेकर चिल्फी तक का बड़ा इलाका आदिवासी बाहुल्य है. प्रदेश में करीब 60 फीसदी आबादी भी आदिवासियों और अधिसूचित क्षेत्र के लोगों की है. बस्तर और सरगुजा में पूर्ण बहुमत के साथ कांग्रेस के गढ़ के रूप में स्थापित हो चुके इस क्षेत्र में अब कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ती दिख रही हैं. दोनों ही क्षेत्रों में आदिवासियों का सरकार के खिलाफ आक्रोश बढ़ता दिख रहा है.
आदिवासी नेताओं ने मुख्यमंत्री से चर्चा के बाद कई मुद्दों पर सरकार के रुख को बताया ढुलमुल
'हम सरकार से अपने सम्मान पूर्वक जीने का अधिकार मांगते हैं'
सर्व आदिवासी समाज के प्रदेश सचिव विकास नागवंशी कहते हैं कि आदिवासी समाज कभी किसी से नाराज नहीं होता है. संविधान में जो अधिकार दिया है. उस अधिकार में यदि उसे कोई प्रभावित करता है या छीनने की कोशिश करता है तब नाराजगी स्वाभिक है. नागवंशी ने बताया कि छत्तीसगढ़ के 60 प्रतिशत क्षेत्र शेड्यूल्ड एरिया कहलाता है. जहां पूर्णता अधिकारों को सुरक्षित रखा गया है. हमे कभी खनिज संपदा के नाम पर हटाया जाता है, कभी बांध के नाम पर हटाया जाता है. कभी रोड बनने और अन्य चीजों के नाम पर जंगलों से बेदखल किया जाता है. सरकार चुनाव से पहले जो वादा अपने घोषणा पत्र में करती है उसे पूरा भी नहीं करती. 32 % आरक्षण, स्वास्थ्य, शिक्षा समेत कई मुद्दे हैं. जिस पर अनदेखी की जा रही है. विकास नागवंशी का कहना है कि हम कोई ऐसा कोई विरोध नहीं करते कि हमको सरकार नहीं चाहिए या कांग्रेस या भाजपा नहीं चाहिए. हम सरकार से अपने सम्मान पूर्वक जीने का अधिकार मांगते हैं
'दोनों ही स्थिति में हमारी तरफ गोली ही आती है '
सर्व आदिवासी समाज के कार्यवाहक प्रदेश अध्यक्ष बीएस रावटे कहते हैं कि छत्तीसगढ़ के गठन के बाद हम लोग बहुत खुश थे. कि हमें अपने जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण मिलेगा. सेंट्रल गवर्नमेंट और स्टेट गवर्नमेंट के हिसाब से पदोन्नति होगी, लेकिन हमें इसके लिए 12 साल तक लड़ाई लड़ना पड़ा. छत्तीसगढ़ में 32 फीसदी आबादी आदिवासी है. इसके बाद भी 2012 तक हमको 20 % ही आरक्षण दिया गया. बाकी 12% आरक्षण की लड़ाई के लिए 13 साल तक आंदोलन किया. सड़क पर उतरे, लाठी खाई. जेल भी गए, तब जाकर हमारी मांगें मानी गई. हमारी मांगें जबरदस्ती नहीं थी. यह हमारा अधिकार था. सरकारों को हमारी मांगों पर बिना मांगें अधिकारों का हिस्सा देना चाहिए. हमारा समाज अब धीरे-धीरे पूरी बात को समझने लगा है. रावटे ने बताया कि हाल ही में सिलगेर आंदोलन को लेकर तमाम सवाल हम पर उठाए गए. नक्सलियों का साथ देने का आरोप लगाया गया, लेकिन दोनों ही स्थिति में हमारी तरफ गोली ही आती है.
सरकार से आदिवासियों की नाराजगी हुई सार्वजनिक
सरकार से आदिवासियों की नाराजगी को लेकर वरिष्ठ पत्रकार अवधेश मलिक का कहना है कि, इस सरकार में आदिवासियों को वो फायदा नहीं मिल पाया, जिसके वे हकदार थे. सरकार से जो आदिवासियों की नाराजगी है, वह सार्वजनिक हो चुकी है. उन्होंने बताया कि सत्ता में आने से पहले भूपेश सरकार ने रोजगार, आदिवासियों के अधिकार समेत जो वादे किए थे, वो अब भी अधूरे हैं. आदिवासी अंचल में माइनिंग की बात हो या फिर दूसरे उद्योग. जिस हिसाब से उनको फायदा मिलना था वो नहीं मिल पाया. अवधेश मलिक ने बताया कि आदिवासी जिस तरह से विकास चाहते हैं या उन्हें क्या चाहिए. इसे लेकर उनसे शासन-प्रशासन बात भी नहीं करना चाहता.
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सरकार से क्यों नाराज हैं आदिवासी ?
बस्तर से लेकर सरगुजा तक कई मुद्दों को लेकर आदिवासी समाज का विरोध देखने को मिल रहा है. सरगुजा के परसा कोल ब्लॉक के अलॉटमेंट को लेकर विरोध जारी है. वहीं लेमरू एलीफेंट रिजर्व एरिया में विस्थापन का मुद्दा अहम है. इधर बस्तर में भी बोधघाट परियोजना और बैलाडीला के नंदीमाइंस को लेकर भी आदिवासी समाज में नाराजगी है. वहीं हाल ही में सिलगेर आंदोलन ने तो सरकार की काफी मुश्किलें बढ़ा दी है. कहीं न कहीं सरकार स्थानीय स्तर पर बातचीत से हल निकालने में फेल साबित होती दिख रही है. यही वजह है कि हाल ही में बस्तर में जन नेता के रूप में पहचाने जाने वाले हैं मंत्री कवासी लखमा को अब बस्तर के बड़े लीडर के देर तौर पर बस्तर के 5 जिलों का प्रभार दे दिया गया है. बस्तर की 12 सीटों को बचाने का जिम्मा कवासी लखमा के कंधे पर आ गया है.
मोदी लहर में भी बस्तर सीट कांग्रेस की झोली में आई
मोदी की आंधी में भी बस्तर रहा किले की तरह 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ में एकतरफा जीत हासिल करते हुए 68 विधायकों की फौज के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज की थी, लेकिन इसके कुछ महीनों बाद ही हुए लोकसभा चुनाव में पासा उलट रहा. प्रदेश की 11 में से 9 लोकसभा सीटों पर भारतीय जनता पार्टी ने अपना परचम लहराया. हालांकि ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी बस्तर के लोगों ने कांग्रेस को जीत दिलाई.