रायपुर: छत्तीसगढ़ में 47% आबादी ओबीसी होने की वजह से चुनाव में उनका दबदबा रहता है. छत्तीसगढ़ में कुल 90 विधानसभा सीट है, जिसमें से 39 सीटें रिजर्व है , 29 एसटी और 10 एससी वर्ग के लिए है. 51 सीटें सामान्य हैं इनमें से भी 11 सीटों पर एससी का प्रभाव है. प्रदेश की आधी सीटों पर सबसे ज्यादा प्रभाव ओबीसी का है क्योंकि 47% आबादी प्रदेश में ओबीसी की है. हालांकि 2018 के चुनाव में प्रदेश में 20 विधानसभा सीटों में ओबीसी के विधायकों ने जीत हासिल की थी. सामान्य विधानसभा सीटों में 24 विधायकों ने जीत हासिल की थी.
छत्तीसगढ़ की राजनीति में ओबीसी की काट अबतक प्रदेश में हुए 4 विधानसभा चुनाव हुए हैं. साल 2003 में 75% एसटी सीटें भाजपा ने जीती थी. 2008 में 66% और 2013 में 36% सीटें ही भाजपा जीत पाई थी. साल 2008 में परिसीमन के बाद ओबीसी वर्ग का दबदबा और बढ़ा. साल 2003 में 19 ओबीसी विधायक सदन में पहुंचे. 2013 में यह संख्या बढ़कर 24 हो गई लेकिन 2018 के चुनाव में ओबीसी के 20 विधायक जीत पाए थे.
क्या ओबीसी की काट, ओबीसी ही होना चाहिए?
वरिष्ठ पत्रकार शशांक शर्मा ने बताया कि राजनीति में खासकर चुनाव के समय जातिगत आधार का एक महत्व तो है लेकिन ओबीसी की काट ओबीसी ही हो यह जरूरी नहीं है. हमारे प्रदेश में सबसे ज्यादा संख्या आदिवासियों की है. मुझे लगता है कि विष्णु देव साय भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष हैं वह या उनके स्थान पर किसी तेजतर्रार आदिवासी चेहरे को भाजपा मुख्यमंत्री के लिए आने वाले चुनाव में सामने रख सकती है. लेकिन भारतीय जनता पार्टी की राजनीति थोड़ी अलग तरह से होती है.
अगर हम 2002-03 की बात करें तो अजीत जोगी मुख्यमंत्री थे. कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष उस समय रामानुज यादव थे. पिछड़ा वर्ग और आदिवासी की राजनीति उस समय चल रही थी. उसके उलट डॉ रमन सिंह को भाजपा ने प्रदेशाध्यक्ष बनाया. चुनावी राजनीति अलग होती है और संगठन चलाने की क्षमता अलग होती है. आगामी चुनाव में भाजपा की तरफ से पिछड़ा वर्ग या किसी आदिवासी तेजतर्रार भाजपा नेता को कमान दी जा सकती है.
'छत्तीसगढ़ भाजपा में नहीं है बड़े चेहरों की कमी'
शशांक शर्मा के मुताबिक भाजपा में युवा नेताओं से लेकर कई ओबीसी और जनजाति समुदाय के बड़े चेहरे हैं. युवा चेहरों में केदार कश्यप, महेश गागड़ा हैं. इसके अलावा रामविचार नेताम , विष्णु देव साय भी हैं. वहीं पिछड़ा वर्ग में धरमलाल कौशिक, विजय बघेल , ओ पी चौधरी, अजय चंद्राकर शामिल हैं. सवाल यह है कि संगठन को लेकर आगामी चुनाव में जनता का विश्वास जीतकर सरकार बनाने की स्थिति पैदा कर सके ऐसा नेतृत्व चाहिए और जो सभी को साथ लेकर भी चल सके, वर्ना जातिगत चेहरे तो बहुत हैं.