छत्तीसगढ़ को प्राचीन काल में दक्षिण कोसल के नाम से जाना जाता था रायपुर:मध्य प्रदेश का दक्षिण पूर्वी भाग जिसे छत्तीसगढ़ कहा जाता है, प्राचीन काल में दक्षिण कोसल के नाम से विख्यात था. इसमें ना केवल वर्तमान रायपुर, दुर्ग, बिलासपुर, रायगढ़ और सरगुजा जिले शामिल थे. इसके साथ ही ओडिशा के संबलपुर का कालाहांडी और बलांगीर जिला का कुछ भाग भी शामिल था. यह प्रदेश चारों ओर से पर्वतों से अर्ध वृत्ताकार घिरा हुआ है.
"दक्षिण कोसल छत्तीसगढ़ का रामायण कालीन नाम है":इतिहासकार एवं पुरातत्वविद हेमू यदु ने बताया कि "दक्षिण कोसल छत्तीसगढ़ का प्राचीन कालीन नाम है. दक्षिण कोसल की कला इसलिए कहा जाता है कि छत्तीसगढ़ की शिल्प कला मूर्तिकला अद्भुत है. पूरे भारतवर्ष में दक्षिण कोसल की कला अपनी अलग पहचान रखती है. यहां शैव वैष्णव जैन बौद्ध सभी धर्मों की मूर्तियों का शिल्पांकन हुआ है. हेमू यदु को इस विषय पीएचडी भी की. उस दौर में छत्तीसगढ़ का नामोनिशान भी नहीं था और काफी कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ा. मूर्तिकला और शिल्पकला पर बारीकी से अध्ययन करना पड़ा."
भारतीय कला के अध्ययन में धार्मिक पक्ष सर्वाधिक महत्वपूर्ण:छत्तीसगढ़ का मैदान कहा जाने वाला मध्य भाग सपाट और खुला हुआ है. मध्य भाग का खुलापन ही यहां के शिल्पकारों को स्वतंत्र मूर्तियों के निर्माण में विशेष सहायक रही है. यह क्षेत्र प्राचीन काल से राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, व्यापारिक और कलात्मक गतिविधियों का केंद्र था. भारतीय कला के अध्ययन में धार्मिक पक्ष सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है. इसके अलावा इसका भौतिक पक्ष भी महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करता है. छत्तीसगढ़ क्षेत्र के संदर्भ में भी यही बात कही जा सकती है. यहां की कला विकास के अध्ययन में धार्मिक और सामाजिक पृष्ठभूमि का विशेष महत्व है. क्षेत्र में उपलब्ध अभिलेख सिक्के और पुरातात्विक स्मारक इस अंचल की धार्मिक स्थिति के अध्ययन में विशेष सहायक सिद्ध होता है.
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प्रतिमाओं में धर्मनिरपेक्षता की झलक:रायपुर के संग्रहालय में संरक्षित दक्षिण कोसल क्षेत्र की प्रतिनिधित्व करने वाली प्रतिमाओं की अवलोकन से यहां की तात्कालीन धर्मनिरपेक्षता की परंपरा की जानकारी मिलती है. यहां शैव वैष्णव जैन और बौद्ध के साथ ही अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियों का निर्माण एक ही समय में समान रूप से देखने को मिलता है. यह इस बात को दर्शाता है कि दक्षिण कोसल में धर्म सहिष्णुता की परंपरा थी, जहां सभी धर्मों को विकास के लिए समान अवसर प्राप्त थे, परिणाम स्वरूप देव प्रतिमाओं का निर्माण पर्याप्त मात्रा में हुआ था.