कोरबा: यह पहली बार होगा, जब कोई महामारी मलिन बस्तियों, गांवों में न फैलकर महानगरों में पैर पसार रही है. महानगर जितना बड़ा है, कोरोना पॉजिटिव मरीजों की तादाद भी उतनी ही बड़ी है. कोरोना जैसी महामारी गरीबों के गांव और मोहल्लों से नहीं बल्कि पासपोर्ट-वीजा के जरिए विदेशों से देश में आई है.
शायद यही कारण है कि दशकों से राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र कहे जाने वाले पहाड़ी कोरवा आदिवासी इस महामारी के बचाव के तरीकों से भी अंजान हैं. प्रदेश सरकार के एलान के बाद भले ही मास्क के बिना घर से बाहर निकलना अब अपराध की श्रेणी में आ गया है, लेकिन जिले के मूल निवासी पहाड़ी कोरवा आदिवासियों को मास्क और सैनिटाइजर मिलना तो दूर, इसके उपयोग के तौर-तरीके तक नहीं पता हैं.
कोरबा जिला मुख्यालय से लगभग 30 किलोमीटर दूर पहाड़ी कोरवा के गांव दूधीटांगर में 5 से 6 परिवार रहते हैं. देश में लॉकडाउन के कारण कोरवा जनजाति के लोगों की आजीविका पूरी तरह से समाप्त हो चुकी है. गांव के लोग बताते हैं कि अफसर दाल, चावल, आलू-प्याज और राशन का सामान तो पहुंचा जाते हैं, लेकिन जितना उनके पास पहुंचता है, वो पर्याप्त नहीं है.
इस लॉकडाउन ने उनकी आजीविका पूरी तरह से खत्म कर दी है. पहाड़ी कोरवा आदिवासियों के आय का मुख्य साधन जंगल से मिलने वाले धूप, महुआ जैसे वनोपज हैं. जिसे वे जंगल से चुनकर हाट-बाजारों में बेचते हैं. लॉकडाउन के बाद से साप्ताहिक हाट-बाजारों पर पूरी तरह से प्रतिबंध है. इससे अब इनके सामने रोजी-रोटी का संकट आ गया है.