Bastar Dussehra Bhitar Raini: ऐतिहासिक बस्तर दशहरा में नहीं होता रावण दहन, जानिए दशानन का बस्तर से रिश्ता
Bastar Dussehra Bhitar Raini बस्तर दशहरा की ऐतिहासिक रस्म भीतर रैनी निभाई गई. 8 पहियों के विशाल रथ में मां दंतेश्वरी का छत्र नगर भ्रमण पर निकला. इस दौरान आदिवासियों ने रथ को चुरा लिया.
जगदलपुर: विजयदशमी के दिन पूरे देश में रावण का पुतला दहन की परंपरा है. लेकिन 75 दिनों तक चलने वाले ऐतिहासिक बस्तर दशहरा में रावण दहन नहीं होता है. विजयदशमी के दिन बस्तर में दशहरा की प्रमुख रस्म भीतर रैनी निभाई जाती है. बस्तर में शक्ति की पूजा की जाती है. साथ ही बस्तर की आराध्या देवी दंतेश्वरी के छत्र को शहर भ्रमण कराया जाता है. मंगलवार देर रात तक इस महत्वपूर्ण रस्म को धूमघाम से मनाया गया. इसे देखने के लिए काफी संख्या में पर्यटक और श्रद्धालु पहुंचे. बस्तर के सैकड़ों देवी देवता भी इस रस्म में शामिल हुए.
क्या है भीतर रैनी रस्म: मान्यताओं के अनुसार आदिकाल में बस्तर रावण की नगरी हुआ करती थी. यही वजह है कि शांति, अंहिसा और सदभाव के प्रतीक बस्तर दशहरा पर्व में रावण का पुतला दहन नहीं किया जाता. इस दिन भीतर रैनी की रस्म निभाई जाती है. भीतर रैनी बस्तर दशहरा की एक महत्वपूर्ण रस्म है. बस्तर के जानकार हेमन्त कश्यप बताते हैं कि भीतर रैनी के दिन चलने वाले रथ को विजय रथ कहा जाता है. इस रथ में 8 पहिये होते हैं. इससे पहले 6 दिनों तक फूल रथ चलाया गया था. जो 4 पहिए का होता है.
विजयदशमी के दिन 8 पहियों वाले रथ को चलाने के कारण इसे विजय रथ कहा जाता है. पहले विजय रथ में महाराजा चढ़ते थे. लेकिन राजशाही खत्म होने के बाद अब जिला प्रशासन के द्वारा व्यवस्था करके इसमें बस्तर की आराध्य देवी के छत्र को सवार किया जाता है.- हेमंत कश्यप, विशेष जानकार, बस्तर दशहरा
भीतर रैनी रस्म में होती है रथ की चोरी: विजयदशमी के दिन भीतर रैनी रस्म में 8 चक्के के विजय रथ परिक्रमा कराने के बाद आधी रात को इसे माडिया जाति के लोग चुरा लेते हैं. रथ चोरी करने के बाद इसे शहर से लगे कुम्हडाकोट ले जाते हैं. इसे भीतर रैनी की रस्म कहा जाता है.
मान्यता है कि राजशाही युग में राजा से असंतुष्ट लोगों ने रथ चुराकर एक जगह छिपा दिया था. रथ चुराने के बाद आदिवासियों ने राजा से नयाखानी साथ में खाने की मांग थी. इस बात की जानकारी लगते ही राजा अपने लाव लश्कर, गाजे बाजे के साथ, आतिशबाजी करते हुए दूसरे दिन कुम्हड़ाकोट पहुंचे और ग्रामीणों का मान मनौवल कर उनके साथ भोज किया. इसके बाद रथ को शाही अंदाज में वापस जगदलपुर के दंतेश्वरी मंदिर लेकर पहुंचे. इस रस्म को बाहर रैनी रस्म कहा जाता है. - अविनाश प्रसाद, विशेष जानकार, बस्तर दशहरा
बस्तर के राजा पुरषोत्तम देव अपने लाव लश्कर के साथ पदयात्रा करते हुए जगन्नाथ पुरी पहुंचे थे. जहां से उन्हें रथपति की उपाधि मिली. इसे ग्रहण करने के बाद राजा बस्तर पहुंचे और उस समय से बस्तर में दशहरे के अवसर पर रथ परिक्रमा की प्रथा शुरू की गई. जो की आज तक करीब 600 सालों से अनवरत चली आ रही है.
विजयदशमी के दिन बस्तर में राजा महाराजाओं के जमाने की ऊंची व वजनी बंदूक ( कालवान ) की भी पूजा अर्चना की गई. खासबात यह है कि मंदिर के पुजारी और राजपरिवार के द्वारा इस बंदूक को साल में सिर्फ एक बार विजय दशमी के दिन बाहर निकाला जाता है. इस बंदूक का वजन रीब 10 किलो है. इसकी ऊंचाई 8-9 फिट है.