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SPECIAL: 'बिलासपुर का रफी', जिसने चाय का ठेला भी लगाया लेकिन गाना नहीं छोड़ा

जब-जब सुरों की दुनिया में बेहतरीन आवाज और गायकी का जिक्र होगा, आपकी जुबान पर मोहम्मद रफी का नाम होगा. हर तरह के गानों को निभाने वाला वो सिंगर, जिसकी आवाज में 'जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा' सुनकर रोमांस महसूस करेंगे, तो 'चाहे मुझे कोई जंगली कहे' सुनकर मस्ती में डूब जाएंगे और बाबुल की दुआएं लेती जा सुनकर फफक पड़ेंगे...ऐसे फनकार की पुण्यतिथि पर मिलिए बिलासपुर के रफी से, जिन्होंने अपने आर्दश रफी को अपना भगवान मान लिया है.

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जी उमा महेश 'बिलासपुर का रफ़ी'

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Published : Jul 30, 2020, 7:04 PM IST

बिलासपुर:मोहम्मद रफी, ये नाम सुनते ही संगीत पसंद करने वालों का दिल खिल जाता है. हजारों नगमे इस फनकार ने अपनी आवाज से सजाए हैं. हजारों शब्द इनके सुरों से इतराए, इठलाए और मचल-मचल कर हमने गाए. इस आवाज ने आपको हंसाया...आपको रुलाया...और मोहब्बत से भर दिया. लेकिन आज से 40 साल पहले 31 जुलाई 1980 को सरगम की दुनिया के इस सितारे ने दुनिया को अलविदा कह दिया था. लेकिन जाते-जाते कह गया था...तुम मुझे यूं भुला न पाओगे...जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे...और यही हाल होता है रफी के दीवानों का.

जी उमा महेश हैं 'बिलासपुर के रफी'

31 जुलाई 1980 के दिन हिंदी सिनेमा के जाने-माने और लोकप्रिय सिंगर मोहम्मद रफी हमें छोड़कर चले गए थे. शहंशाह-ए-तरन्नुम के नाम से मशहूर रफी साहब किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. उनकी लोकप्रियता सरगम की हर सरहद के पार है. उन्होंने हजारों फिल्मों में अपनी जादुई आवाज से सुर बिखेरे. उनकी पुण्यतिथि पर ETV भारत आपको ऐसी शख्सियत से मिलवा रहा है, जिन्होंने मोहम्मद रफी को ही अपना भगवान मान लिया. छत्तीसगढ़ के बिलासपुर के रहने वाले 'जी उमा महेश', जिन्हें अब लोग बिलासपुर का रफी बुलाने लगे हैं.

बड़े भाई की गायिकी से प्रभावित रहे उमा महेश

मुल रूप से दक्षिण भारत के रह नेवाले जी उमा महेश का जन्म बिलासपुर में ही हुआ है. उमा महेश के पिता जी.एन मूर्ति बिलासपुर रेलवे ऑफिस में सुपरिंटेंडेंट के पद पर सेवा दे चुके हैं. उमा महेश का पूरा परिवार गीत-संगीत और नाटक में रुचि रखने वाला रहा है. उमा महेश प्रमुख रूप से अपने बड़े भाई 'जी एन राव' की गायकी से प्रभावित रहे हैं. बड़े भाई को गाता देख बचपन से ही उन्होंने मोहम्मद रफी को नकल करना शुरू कर दिया था.

गाने की दीवानगी ने छुड़ा दी सरकारी नौकरी

उमा के पिता कर्नाटक शैली में गाते थे. इस बीच उमा महेश ने बिलासपुर से ही बीकॉम की पढ़ाई भी की और फिर ग्रामीण बैंक में बतौर फील्ड ऑफिसर नौकरी भी शुरू कर दी. लेकिन गाने-बजाने और मोहम्मद रफी साहब के गीत गाने की दीवानगी के कारण उमा ने सरकारी नौकरी भी छोड़ दी और फिर गाने में मशगूल हो गए.

मायानगरी मुंबई में संघर्ष भरा रहा उमा का जीवन

साल 1992 में उमा महेश वैवाहिक बंधन में बंधे और पत्नी की प्रेरणा से साल 1994 में मुंबई की तरफ निकल पड़े. फिल्मों में गीत गाने का शौक और अपनी गायकी के हुनर को एक मंच मिलने की उम्मीद के साथ मुंबई पहुंचे उमा महेश को मायानगरी में काफी संघर्षों का सामना करना पड़ा. महेश घर से 25 हजार रुपए लेकर निकले थे, जिसे साल-डेढ़ साल में उन्होंने मुंबई में खर्च कर डाले. लेकिन उनके हाथ कोई कामयाबी न लगी. मुंबई जाकर महेश ने कई बड़े संगीतकारों और गीतकारों से मुलाकात की, लेकिन कुछ न हो सका. वे सत्यदेव दुबे, उन दिनों के उभरते सितारे उदित नारायण, कुमार शानू, आशा भोंसले, जगजीत सिंह, संगीतकार प्रीतम जैसी स्थापित हस्तियों से मुलाकात की, लेकिन इन सब के बाद भी उन्हें ब्रेक नहीं मिल पाया.

उमा ने मोहम्मद रफी के डब किए गानों की कैसेट लोगों में बांटी लेकिन संघर्ष के इस दौर में जब किसी का साथ न मिला तो वे बिलासपुर लौट आए.

मुंबई से आए फोन कॉल ने बदली किस्मत

इस दौरान बिलासपुर में ही उनके पास मुंबई में स्थित निजी चैनल से फोन आया कि आप जितनी जल्दी हो सके मुंबई आ जाइए. फोन में उनसे कहा गया कि एक शो के लिए उनका ऑडिशन होना है. ये सुनकर उमा महेश की खुशी का ठिकाना नहीं था. वे तुरंत ही बिलासपुर से मुंबई के लिए रवाना हुए. जिस शो के लिए उन्हें बुलाया गया था वो निजी चैनल का फेमस शो था.

ऑडिशन में रफ़ी साहब का गाना गाकर हुए थे सेलेक्ट

मुंबई के सांताक्रूज में उमा महेश का ऑडिशन होना था. देशभर से हजारों कलाकार वहां पहुंचे थे. गुजरे जमाने के मशहूर संगीतकार रवि जी के स्टूडियो में उनका ऑडिशन होना था. जब उमा से पूछा गया कि वे कौन सा गाना गाएंगे, तो उन्होंने कहा था कि वे रफी साहब का 'मेरी कहानी भूलनेवाले' गीत गाएंगे. उन्होंने ऑडिशन दिया और वे सेलेक्ट कर लिए गए. लोगों से उन्हें काफी तारीफ भी मिली.

1995-96 में बेस्ट मेल सिंगर का खिताब

गाने के दौरान उनके सामने मशहूर संगीतकार मदन मोहन के बेटे संजीव कोहली मौजूद थे, जिन्होंने उनकी गायकी की काफी सराहना की. इस तरह बिलासपुर के एक साधारण पृष्ठभूमि के गायक को 'मेरी आवाज सुनो' (1995-96) में बेस्ट मेल सिंगर का खिताब मिला और फिर देखते ही देखते उमा महेश लोकप्रिय होते चले गए. इस बीच उसी चैनल ने उन्हें गायक मुकेश के लिए भी स्पेशल एपिसोड में गाने का मौका दिया.

उमा बने 'बिलासपुर के मोहम्मद रफ़ी'

लंबे संघर्ष के बाद बिलासपुर के इस गायक की अब पहचान बन गई. जब उमा वापस बिलासपुर लौटे तो, उन्होंने अपने गायन प्रतिभा को आगे बढ़ाया. इस बीच रोजी-रोटी के लिए उन्हें संघर्ष भी करना पड़ा. उन्होंने प्रिंट मीडिया में अखबार के लिए भी काम किया. शहर के ही बुधवारी बाजार में उन्होंने चाय का ठेला भी लगाया, साथ ही साथ अपनी गायिकी से भी जुड़े रहे. उमा की जिंदगी में शोहरत बढ़ने लगी. वो स्टेज प्रोग्राम करके छाने लगे. देशभर के कई हिस्सों से उन्हें अपनी प्रस्तुति देने के लिए बुलावा आता था. उमा महेश ने अपनी गायकी को एक मुकाम पर पहुंचाया और फिर बन गए 'बिलासपुर के मोहम्मद रफी'.

पत्नी ने जन्मदिन पर दी थी रफ़ी साहब की तस्वीर

उमा महेश की पत्नी का देहांत हो चुका है. पत्नी ने ही उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा दी थी. उमा महेश मोहम्मद रफी की उस तस्वीर को आज तक सीने से लगाए हुए हैं, जिसे उनकी पत्नी ने जन्मदिन पर गिफ्ट किया था. रफी साहब की उस तस्वीर से उमा की कई यादें और भावनाएं जुड़ी हुई हैं. वो जहां भी प्रोग्राम करने जाते हैं, रफी साहब की इस तस्वीर को अपने साथ जरूर लेकर जाते हैं.

'रफी साहब जैसा गाना संभव नहीं'

उमा महेश ने ETV भारत को बताया कि वो 60-70 के दशक में रफी के गाए गीतों से काफी प्रभावित थे और उन्हीं के गीतों से प्रेरणा लेकर वो लगातार गाना गाते रहे. उमा कहते हैं कि उन्हें गीत गाने से कभी थकान नहीं होती, 'बल्कि जितना गाते हैं उतनी खुशी मिलती है. उमा का कहना है कि लोग जरूर कहते हैं कि मेरी आवाज रफी साहब से मिलती है, लेकिन मेरा मानना है कि हम सिर्फ और सिर्फ रफी साहब की नकल कर सकते हैं, उनके जैसा गाना संभव नहीं है.'

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ETV भारत फिल्म जगत के संगीत के बादशाह मोहम्मद रफी को श्रद्धांजलि अर्पित करता है. इसके साथ ही रफी साहब की यादों को जिंदा रखने के लिए उमा महेश को शुभकामनाएं.

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