बिलासपुर: कोरोनाकाल में शैक्षणिक गतिविधियां पूरी तरह ठप हैं. इन परिस्थितियों में ईटीवी-भारत की टीम सरकारी स्कूलों में पढ़नेवाली छात्राओं के पास पहुंची और उनसे वर्तमान में उनकी शैक्षणिक गतिविधियों को जानने की कोशिश की. छात्राओं ने ऑनलाइन एजुकेशन और वर्चुअल क्लासेज को लेकर जो जानकारी दी, वो बालिकाओं के शिक्षा के लिहाज से बेहद शर्मनाक है.छात्राओं का कहना है कि उन्हें उनके घर में स्मार्टफोन उपलब्ध नहीं करवाया जाता है, जिससे वो ऑनलाइन क्लासेज को अटेंड कर सकें. अमूमन ये बच्चे कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि से जुड़े हुए हैं. कोरोनाकाल में इन बच्चों के माता-पिता आर्थिक रूप से चरमरा चुके हैं, जिसका खामियाजा इन बच्चों को भुगतना पड़ रहा है.
ये बच्चे जरूरी शैक्षणिक गतिविधियों से दूर होते चले जा रहे हैं. शिक्षकों ने भी बताया कि ऑनलाइन क्लास अगर लगाई भी जाती है तो इंटरनेट की तकनीकी बाध्यता और छात्राओं के बीच स्मार्ट फोन नहीं होने के कारण ये छात्रा क्लास से दूर रहतीं हैं और हम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते. सामान्य तौर पर घर में स्मार्ट फोन की उपलब्धता कम रहती है, लिहाजा फोन घरेलू इस्तेमाल तक सीमित रहता है. एक अनुमान के मुताबिक महज 10 फीसदी छात्राएं ऑनलाइन क्लासेज में शामिल हो पा रहीं हैं.
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बेटियों को मिले समान अवसर
प्रोफेसर अनुपमा सक्सेना बतातीं हैं कि हमारा समाज शुरू से ही पुरुष प्रधान मान्यताओं वाला समाज है. समाज में पितृ सत्तात्मक सोच गहराई तक रची बसी है. इसलिए जब कभी भी देश में स्थिति नाजुक होती है और संसाधनों की व्यापक कमी आती है तो इसका खामियाजा महिलाओं को ज्यादा भुगतना पड़ता है. अभी कोरोना महामारी के कारण बेरोजगारी, स्वास्थ्य सुविधाओं में कमी और महंगाई जैसी समस्या विकराल हो चुकी है.
ऐसे माहौल में संसाधनों का लाभ अधिक किसे मिले और जब मामला चॉइस का आता है तो महिलाएं पुरुषों के मुक़ाबले पिछड़ जाती हैं. हमारा समाज अब भी बेटों को बेटियों के मुकाबले पारिवारिक भरण-पोषण के लिए अधिक उपयुक्त मानता है. इसके अलावा वंश चलाने से लेकर तमाम मान्यताओं में पुरुषवादी मानसिकता अब भी हावी है. इसलिए कोरोनाकाल में बेटों के मुकाबले बेटियों के पिछड़ने की बातें अस्वभाविक बिल्कुल नहीं हैं.