बेमेतरा: आज आधुनिकता की चकाचौंध में लोग अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं. अब न मिट्टी के बर्तनों के खरीदार बचे हैं और न ही सदियों पुरानी इस कला को चाहने वाले. आज मटके के जगह फ्रिज और दीयों की जगह फैंसी लाइटों ने ले ली है. चाइनीज दीयों की चमक में कुम्हार के हाथों से बने मिट्टी के दीये की लौ कम कर दी है.
मद्धम हो गई मिट्टी के दीयों की चमक बेमेतरा के धनगांव में विगत 100 साल से कुम्हार समाज के लोग मिट्टी के खिलौने, मटके, दीये और दुर्गा, गणेश की प्रतिमा बनाकर जीवन यापन कर रहे हैं. दीपावली आते ही जहां कुम्हारों के चेहरे पर रौनक देखने को मिलती थी. वहीं इस बार कुम्हारों के चहरे पर उदासी देखने को मिली है.
1 रुपए से भी कम कीमत में बिक रहे दीए
मिट्टी के दीयों की बिक्री का कम होना कुम्हारों की परेशानी की मुख्य वजह बनती जा रही है. कुम्हारों की हालात को देखकर ऐसा लग रहा है, कुम्हार और उनकी कला आने वाले दिनों में सिर्फ किताबों और कहानियों तक सिमटकर रह जाएगी. हालत ये है कि कुम्हारों को उनका मेहनताना भी नहीं मिल पाता. बाजार में 10 रुपए में 20 दीये बिक रहे हैं. पहले जहां लोग सौ-सौ मिट्टी के दीये लेते थे, वो अब महज औपचारिकता पूरी करने के लिए 10-12 ही दीये लेते हैं.
ऐसे बनते हैं दीये-
कुम्हार समाज में पुरुष वर्ग खेतों से मिट्टी लाकर उसे अच्छे से मिलाकर मजबूत करते हैं और चाक में रखकर अपनी कलाकृति से मनचाही आकृति प्रदान करते हैं. 2 दिनों तक बनाये समाग्री को धूप में सुखाया जाता है और फिर महिलाओं द्वारा वात्या भट्ठा लगाकर पकाने और रंग-रोगन का काम किया जाता है.
तंगहाली में कुम्हार परिवार
ETV भारत से बातचीत के दौरान कुम्हारों ने बताया कि अब बाजार में मिट्टी के सामान की कीमत कम हो गई है. उनका कहना है कि आधुनिक समय में लाइटों की बढ़ती मांग ने दियों की खरीदारी कम कर दी है. वे अपनी पुरानी परंपरा के कारण दिए बनाते हैं, लेकिन इससे उन्हें कोई फायदा नहीं हो रहा है. सरकार भी इस और कोई ध्यान नहीं दे रही है.