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छिन्न मस्तिका: मराठाओं से जुड़ा है मां महामाया के मंदिर का इतिहास, दूर-दूर से आते हैं श्रद्धालु - सरगुज़ा में धड़ है तेरा हिरदय हमने पाया

सरगुजा की मां महामाया और समलाया से जुड़ी मान्यता बेहद ही रोचक है. मराठा मूर्ती ले जाने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन वो मूर्ति उठा नहीं पाए और माता की मूर्ती का सिर उनके साथ चला गया. वह सिर बिलासपुर के पास रतनपुर में मराठाओं ने रख दिया. तभी से रतनपुर की मां महामाया की भी महिमा विख्यात है. माना जाता है की रतनपुर और अंबिकापुर में महामाया के दर्शन बिना पूजा अधूरी मानी जाती है.

सरगुज़ा की मां महामाया और समलाया
सरगुज़ा की मां महामाया और समलाया

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Published : Oct 17, 2020, 8:39 PM IST

Updated : Jul 25, 2023, 8:01 AM IST

अंबिकापुर: नवरात्र की शुरुआत हो चुकी है. जगह जगह मंदिर सजने लगे हैं. कोरोना संक्रमण के बावजूद भी लोग दर्शन के दूर-दूर से मंदिर पहुंच रहे हैं. क्योंकि नवरात्र के इस अवसर कोई भी बिना दर्शन के जाने नहीं देता. श्रद्धालुओं का मानना है कि यहां आकर वे जो भी मनोकामना करते हैं वो पूरी होती है. छिन्न मस्तिका होने के बाद भी मां की दिव्य शक्तियों के आगे लोग यहां श्रद्धा से खींचे चले आते हैं.

मां महामाया के मंदिर का इतिहास

क्वार महीने की नवरात्रि में छिन्न मस्तिका मां महामाया के सिर का निर्माण राजपरिवार के कुम्हार हर साल करते हैं. ऐसे कई रहस्य महामाया मंदिर से जुड़ी है. जिससे बहुत से लोग अंजान हैं. सरगुजा के इतिहासकार और राजपरिवार के जानकार गोविंद शर्मा बताते हैं कि महामाया मंदिर का निर्माण सन 1910 में कराया गया था. इससे पहले एक चबूतरे पर मां स्थापित थीं और राजपरिवार के लोग जब पूजा करने जाते थे, वहां बाघ बैठा रहता था. सैनिक जब बाघ को हटाते थे तब जाकर मां के दर्शन हो पाते थे.

समलाया मंदिर में विराजी मां समलाया

जिस प्रतिमा को मां महामाया के नाम से लोग पूजते हैं, दरअसल पहले इनका नाम समलाया था. महामाया मंदिर में ही दो मूर्तियां स्थापित थी. वर्तमान महामाया को बड़ी समलाया कहा जाता था. वर्तमान में समलाया मंदिर में विराजी मां समलाया को छोटी समलाया कहते थे, बाद में जब समलाया मंदिर में छोटी समलाया को स्थापित किया गया, तब बड़ी समलाया को महामाया कहा जाने लगा और तभी से अम्बिकापुर के नवागढ़ में विराजी मां महामाया और मोवीनपुर में विराजी मां समलाया की पूजा लोग इन रूपों में कर रहे हैं.

सरगुज़ा की मां महामाया

कुलदेवी विंध्यवासिनी की स्थापना मंदिरों में कराई

महामाया और समलाया मंदिर में दो-दो मूर्तियां होने का कारण इतिहासकार गोविंद शर्मा ने बताया कि, दोनों ही मंदिरों में देवी को जोड़े में रखना था. इसलिए सरगुजा के तत्कालीन महाराज रामानुज शरण सिंह देव की मां और महाराजा रघुनाथ शरण सिंह देव की पत्नी भगवती देवी ने अपने मायके मिर्जापुर से अपनी कुलदेवी विंध्यवासिनी की मूर्ति की स्थापना इन दोनों मंदिरों में कराई. तब से महामाया और समलाया के बाजू में विंध्यवासिनी को भी पूजा जाता है. अम्बिकापुर की महामाया मंदिर को लेकर कई मान्यताएं हैं. माना जाता है कि रतनपुर की महामाया भी इसी मूर्ती का अंश है. संभलपुर की समलाया की मूर्ती और डोंगरगढ़ की मूर्ती का भी संबंध सरगुजा से बताया जाता है.

सरगुज़ा की मां महामाया

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महामाया के सामने अर्जी जरूरी

सरगुजा के वनांचल में आपार मूर्तियां यहां-वहां बिखरी हुई थीं और जब सिंहदेव राजपरिवार यहां आया तब इन मूर्तियों को वापस संग्रहित कर पूजा पाठ शुरू किया गया. इसके बाद से ही आस-पास के क्षेत्रों में यहां से मूर्तियां ले जाई गईं. श्रद्धा, आस्था और विश्वास के बीच मान्यताओं का अहम योगदान रहा है. ऐसी ही कुछ मान्यताएं अम्बिकापुर की महामाया की है. जिस वजह से यहां निवास करने वाला हर इंसान अपने हर शुभ कार्य की पहली अर्जी महामाया के सामने ही लगाता है. लोगों का अटूट विश्वास है कि मां किसी को भी निराश नहीं करती है.

राजपरिवार की कुल देवी

यहीं वजह है की न सिर्फ सरगुजा से बल्कि छत्तीसगढ़ के अन्य जिलों व अन्य प्रदेशों से भी लोग महामाया के दर्शन को आते हैं. नवरात्र में तो भक्तों को घंटों लाइन में लगने के बाद ही मां महामाया के दर्शन संभव होते हैं. अंबिकापुर के नवागढ़ में विराजी महामाया यहां के राजपरिवार की कुल देवी हैं. यानी वर्तमान में छत्तीसगढ़ शासन में स्वास्थ्य एवं पंचायत मंत्री जिन्हें सियासत काल के मुताबिक सरगुजा का महाराज होने का गौरव प्राप्त है. वहीं मंदिर की विशेष पूजा करते हैं और उनके परिवार के लोग ही माहामाया और समलाया के गर्भ गृह में प्रवेश कर सकते हैं. मान्यता है कि यह मूर्ति बहुत पुरानी है. सरगुजा राजपरिवार के जानकारों के अनुसार रियासत काल से राजा इन्हें अपनी कुलदेवी के रूप में पूजते आ रहे हैं.

पूजा अर्चना करते टीएस सिंहदेव

मूर्ति का नहीं है सिर

सरगुजा भगवान राम के आगमन समय से ही ऋषि मुनियों की भूमि रही है, जिस कारण यहां कई प्राचीन मूर्तियां रखी हुई थी. सिंहदेव घराने ने सरगुजा में हुकूमत की तब इन मूर्तियों को संग्रहित किया गया है. बताया जाता है कि ये ओडिशा के संभलपुर में विराजी समलाया और डोंगरगढ़ में भी सरगुजा की मूर्तियां हैं. सरगुजा की महामाया का सबसे अद्भुत और विचित्र वर्णन यह है कि यहां मंदिर में स्थापित मूर्ति छिन्नमस्तिका है, अर्थात मूर्ती का सिर नहीं है, धड़ विराजमान है और उसी की पूजा होती है.

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सिर मिट्टी से बनाया जाता है

हर वर्ष नवरात्र में यहां राजपरिवार के कुम्हारों के द्वारा माता का सिर मिट्टी से बनाया जाता है. इसी आस्था की वजह से सरगुज़ा में एक जशगीत बेहद प्रसिद्ध है. गीत के बोल हैं "सरगुज़ा में धड़ है तेरा हिरदय हमने पाया, मुंड रतनपुर में मां सोहे कैसी तेरी माया" मां के जशगीतों से सरगुजा में से एक गीत प्रसिद्ध हैं, जिसे सुमिरते वक्त सरगुजा के लोग गर्व से गाते हैं. मान्यताओं पर बना यह भजन सरगुजा में विराजी मां माहामाया मंदिर की पूरी महिमा का बखान करते हुए लिखा गया है.

महामाया का दर्शन जरूरी

जानकार बताते हैं कि एक बार मराठा मूर्ती ले जाने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन वो मूर्ति उठा नहीं पाए और माता की मूर्ती का सिर उनके साथ चला गया और वह सिर बिलासपुर के पास रतनपुर में मराठाओं ने रख दिया. तभी से रतनपुर की महामाया की भी महिमा विख्यात है. माना जाता है की रतनपुर और अंबिकापुर महामाया का दर्शन किए बिना दर्शन पूरा नहीं होता है.

Last Updated : Jul 25, 2023, 8:01 AM IST

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