कोरबा: यह कहानी है कोरबा जिला मुख्यालय से 22 किलोमीटर दूर नगर पंचायत छूरी में रहने वाले यशवंत देवांगन की. उन्होंने नागपुर से टैक्सटाइल इंजीनियरिंग में डिग्री प्राप्त करने के बाद अपने पिता देव कुमार से विरासत में मिली संस्कृति को आगे बढ़ाने की ठानी (textile engineer chose ancestral business of weaving) है. योगेश यदि चाहते तो टेक्सटाइल के क्षेत्र में किसी बड़ी कंपनी में अच्छे पैकेज वाली नौकरी कर सकते थे, लेकिन उनकी जिद है कि विरासत में मिली बदहाली की तस्वीर को बदला जाए. बुनकरी के पुश्तैनी कारोबार को सिर्फ रोजी, मजदूरी के इंतजाम तक सीमित ना रखते हुए, इसे मुनाफे के बेहतर कारोबार में परिवर्तित किया जाए.
टेक्सटाइल इंजीनियर ने चुना बुनकरी का पुश्तैनी कारोबार एक भाई टैक्सटाइल इंजीनियर तो दूसरे ने फैशन डिजाइनिंग का कोर्स किया:दरअसल छूरी देवांगन समुदाय से आने वाले लोगों का पैतृक निवास है. देवांगन समुदाय से आने वाले लोगों का मुख्य काम बुनकारी करना ही है. वह पुश्तैनी तौर पर यह काम करते आ रहे हैं. हालांकि अब देवांगन समुदाय से आने वाले कई लोगों ने बदहाली और तंगहाली के कारण इस कारोबार से तौबा कर ली है. लेकिन यशवंत व उनके छोटे भाई रोहित देवांगन ने इसी क्षेत्र में डिग्री हासिल कर ली है. दोनों पिता के साथ मिलकर टेक्सटाइल टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर इस काम को मुनाफायुक्त करने का प्रयास कर रहे हैं. छूरी में कोसा और कोसा से बने कपड़ों का भी अच्छा खासा व्यापार होता है. हथकरघा और हैंडलूम के जरिए लोग दशकों से कपड़े तैयार करते आ रहे हैं.
कोसा की बनाई अब विलुप्ति के कगार पर :कोसा कपड़ों की शानदार बुनाई और कारीगरी की डिमांड विदेशों तक है. कई कपड़ों की कीमत तो हजारों और 1 लाख तक भी पहुंच जाती है. लेकिन इसे बुनने वाले बुनकरों को इसका मुनाफा नहीं मिल पाता. लोग यहां से कपड़ा खरीद कर जाते हैं. उस पर बाहर से कारीगरी करवाके ऊंची कीमत पर बेचते हैं.
यशवंत कहते हैं कि "फीकी पड़ती कोसा की चमक तभी बरकरार रहेगी, जब इसे आधुनिक तकनीक के जरिए और बेहतर बनाया जाएगा. पिता से प्रेरित होकर अब हम इसे एक कदम आगे ले जाएंगे. हम इसमें अच्छा मुनाफा कमाने की भी सोच रहे हैं.''
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कारीगरी में करेंगे तकनीक का इस्तेमाल : यशवंत ने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ हैंडलूम टेक्नोलॉजी से हैंडलूम से डिग्री प्राप्त की है. यशवंत ने अपने पिता से विरासत में मिले इस हुनर को जानने के लिए ही यह पढ़ाई की. यशवंत ने नई तकनीक का अध्ययन जरूर किया है, लेकिन गांव के बुनकर अब भी पुराने ढर्रे पर ही काम कर रहे हैं. वह हथकरघा को ही परंपरागत रूप से कपड़े की बुनाई करने के लिए इस्तेमाल करते हैं. यशवंत भी इसे चलाना जानते हैं. यशवंत प्रयास कर रहे हैं कि बुनकरी के इस पुराने तरीके को बदल कर इसमें नई तकनीक लाई जाए. वह बुनकरों के प्रशिक्षण की भी योजना बना रहे हैं, ताकि इसमें रोजगार के नए अवसर पैदा हो सकें.
बुनकरों का समूह बनाया, पिता को भी है यशवंत के प्रयासों पर भरोसा : यशवंत के पिता कहते हैं कि नौकरी तो सभी करते हैं, लेकिन हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे इस पुश्तैनी कारोबार को ही आगे बढ़ाएं. वह इसे ही आगे ले जाएं. मुझे बच्चों पर भरोसा है. वह बेहतर काम करेंगे. अच्छा है कि वह घर पर रहकर ही इस कारोबार को आगे बढ़ाएं.''
यशवंत कहते हैं कि "बुनकरों की हालत अभी बहुत अच्छी नहीं है. वह पारंपरिक तौर पर इस काम को करते आ रहे हैं. उन्हें कम मुनाफा होता है. मैंने बचपन से ही हैंडलूम के बीच ही समय बिताया है. हमने बुनकरों का एक समूह बना दिया है और उन्हें एक्सपर्ट सलाह भी देते हैं. धीरे धीरे हम बदलाव लाने का प्रयास कर रहे हैं. यदि कोई हमसे सीखना चाहता है, तब हम उसे प्रशिक्षण दे रहे हैं. कोसा फल से ही कोसा की साड़ी और कपड़े बनाए जाते हैं. हम इस दिशा में भी काम कर रहे हैं, कि कोसा के कपड़ों का बुनकरों को बेहतर दाम मिल सके.''
जिले में 300 बुनकर पंजीकृत: कोसा कपड़ों की खास तौर पर शादियों में अधिक डिमांड रहती है. कई बार तो विदेशी सैलानी भी छूरी, कोसा के महंगे कपड़े खरीदने पहुंचते हैं. एक साड़ी का दाम भी कई बार एक लाख तक आंका गया है. छत्तीसगढ़ में कोरबा, कोसा उत्पादन के लिए भी प्रसिद्ध है. कोरबा जिले में 300 बुनकर हैं, जो 1 माह में दो लाख कोसा फल को कोसा कपड़ा बनाने में इस्तेमाल कर लेते हैं. बावजूद इसके बुनकरों की आर्थिक स्थिति बेहतर नहीं है. यशवंत इसी दिशा में काम करना चाहते हैं.