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खगड़िया: छठ पर सूप-दउरा बनाने वालों की अपील, बांस से बने सामान का ही करें उपयोग

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Published : Nov 1, 2019, 9:31 AM IST

सूप और दउरा बनाने वाले लोगों ने बताया कि सूप बेचने का काम साल में 2 माह का रहता है. एक परिवार के लोग कम से कम 500 से 1000 सूप बनाते हैं.

सूप-दउरा बनाने वाले की करूण अपील

खगड़िया: बिहार का सबसे बड़ा पर्व कहे जाने वाले छठ की नहाय-खाय के साथ शुरुआत हो गई है. 4 दिनों तक चलने वाले इस अनुष्ठान का समापन 3 नवंबर को उदीयमान सूर्य को अर्घ्य देकर होगा. आज इस महापर्व का दूसरा दिन है. छठव्रती आज खरना का प्रसाद बनाएंगी और शाम में छठ माता को प्रसाद अर्पित कर पहले खुद प्रसाद ग्रहण करेंगी. जिसके बाद सभी में प्रसाद का वितरण कर 36 घंटे का निर्जला उपवास रखेंगी.

सूप बनाती महिला

'हमारा पुश्तैनी धंधा है'
छठ को आस्था का महापर्व कहा जाता है. इस महापर्व पर बांस से बने सामानों का विशेष महत्व है. पूजा में इस्तेमाल किए जाने वाले सामानों में मुख्यत: सूप, डाला, डगड़ा और दउरा का खास महत्व होता है. इन सब चीजों के बिना छठ पर्व अधूरा माना जाता है. सबसे खास बात यह है कि भगवान भास्कर को जिस सूप में प्रसाद अर्पित किया जाता है उसे समाज के सबसे अत्‍यंत पिछड़ी जाति के लोग बनाते हैं. ऐसे में जिले के मानसी प्रखंड के राजाजान गांव में जब सूप और दौरा बनाने वाले लोगों के हालात का जायजा ईटीवी की टीम ने लिया तो लोगों इस काम में लगे लोगों ने बताया कि यह हमारा पुश्तैनी धंधा है. इस काम के अलावे हमें कोई अन्य काम नहीं आता है. इसी काम के सहारे हमारे साल भर के रोजी-रोटी का जुगाड़ होता है.

देखिए यह खास रिपोर्ट

'2 महीने कमाकर सालभर रहते हैं बेरोजगार'
सूप और दउरा बनाने वाले लोगों ने बताया कि सूप बेचने का यह काम साल में 2 माह का रहता है. एक परिवार के लोग कम से कम 500 से 1000 बनाते है. छठ में सूप और दौरा का मांग ज्यादा होता है, लिहाजा हमलोग 2 माह पूर्व से इसको बनाने में जुट जाते है. एक सूप की कीमत 80 रुपया है. ऐसे में हमारा सालभर के रोटी-दाल किसी तरह से चल जाता है.

सूप बनाने वाली महिलाएं

पुरानी परंपराओं पर आधुनिकता भारी
लोक आस्था के इस महापर्व में बदलते दौर में पुरानी परंपराओं पर आधुनिकता भारी पर रही है. बाजार में बांस के सूप और पीतल के सुप में बाजारवाद की जंग देखने को मिल रही है. बांस के सूप बेचने वालों का कहना है कि पहले छठ व्रती बांस से बने सूप और टोकड़ी खरीदते थे. बांस के बने सूप और टोकड़ी में प्रसाद लेकर व्रती छठ मैया को अर्घ्य अर्पित करने के लिए नदी तालाब घाटों में जाते थे, लेकिन बदलते समय के साथ अब पीतल, तांबा, स्टील आदि के सूप बाजार में उपलब्ध हैं. विक्रेताओं का कहना है कि वर्तमान समय में मेहनत के हिसाब से अच्छी कीमत नहीं मिल पाती है. बदलते दौर के साथ सभी पर्वों पर आधुनिकता की छाप भारी पड़ने लगी है. जिसका खामियाजा गरीबों को उठानी पड़ती है.

बांस सूपों पर भारी पीतल के बर्तन
बाजार छठ के पूजन सामग्रियों से लेकर पटा हुआ है. इस बाबात बांस से बने सूप विक्रेता ने बताया कि छठ जैसे निष्ठा के पर्व में भी आधुनिकता दिखाई देने लगा है. लोग बांस से बने सूप और दउरा से ज्यादा तरजीह पीतल से बने सूप और अन्य बर्तनों को दे रहे हैं. एक दउरे की कीमत 250 रुपये है. लेकिन आलम यह है कि मजदूरी तक का भी पैसा भी निकलना मुश्किल लग रहा है.

सरकार से है नाराजगी
सूप बनाने वाले लोगों का कहना है कि इस रोजगार में हमारे परिवार के बच्चे से लेकर घर के बुजुर्ग तक लगे रहते हैं. हमारे कमाई का जरिया बस यही है. हमारी नाराजगी सरकार से है. हमें किसी भी सरकारी योजना का लाभ नहीं मिल पाता है. हमें यह भी नहीं पता होता है कि वर्तमान समय में सरकार कौन-कौन सी योजनाएं चला रही है.

इस महापर्व में जातियों के बीच नहीं है कोई भेदभाव
इस पर्व की सबसे बड़ी खासियत है कि इस त्योहार में समाज में सभी को बराबरी का दर्जा दिया गया है. सूर्य देवता को बांस के बने सूप और डाले में रखकर प्रसाद अर्पित किया जाता है. इस सूप-डाले को सामा‍जिक रूप से अत्‍यंत पिछड़ी जाति के लोग बनाते हैं. इस त्योहार को बिहार का सबसे बड़ा त्योहार भी कहा जाता है. हालांकि अब यह पर्व बिहार के अलावा देश के कई अन्य स्थानों पर भी मनाया जाने लगा है.

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