जोधपुर:राजस्थान हाईकोर्ट ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482 के तहत अंतर्निहित शक्तियों का उपयोग करते हुए अभिनिर्धारित किया है कि संदेह से परे आरोप साबित नहीं होने पर आरोपी को सम्मानजनक दोषमुक्ति का अधिकार है. जस्टिस अरुण मोंगा की एकलपीठ ने फैसले में कहा कि विचारण न्यायालय द्वारा बरी किए जाने के फैसले को गलत तरीके से वर्गीकृत करने से याचिकाकर्ता के लिए महत्वपूर्ण कानूनी और प्रतिष्ठा सम्बन्धी नतीजे हो सकते हैं, जिससे यह कहकर उनकी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाया जा सकता है कि आरोपों में कुछ योग्यता थी, जबकि वे दोषी ठहराने के लिए अपर्याप्त थे. इसलिए किसी भी अभियोजन पक्ष के साक्ष्य की अनुपस्थिति में याचिकाकर्ता की बरी को स्पष्ट रूप से 'स्वच्छ बरी' के रूप में मान्यता देने का निर्देश दिया जाता है.
नागौर जिले के निवासी याचिकाकर्ता घनश्याम की ओर से अधिवक्ता रजाक खान हैदर ने आपराधिक विविध याचिका दायर कर कहा कि वर्ष 2004 में दर्ज हुए बलवा (धारा 147), स्वेच्छया उपहति (धारा 323) एवं रिष्टि (धारा 427), मानव जीवन को संकट में डालने का कार्य (धारा 336) के आपराधिक प्रकरण में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट नागौर ने उसे संदेह का लाभ देकर जरिए राजीनामा और साक्ष्य के अभाव में दोषमुक्त कर दिया था, लेकिन सम्मानजनक दोषमुक्ति नहीं होने के कारण याचिकाकर्ता के जीवन में विशेष रूप से सार्वजनिक रोजगार के मामले में उसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है.