रियो डी जनेरियो में आयोजित जी-20 शिखर सम्मेलन से बड़ी उम्मीदें थीं. दुनिया में बढ़ते व्यापारिक तनाव, जलवायु परिवर्तन की चुनौती और वैश्विक असमानता के बीच, यह मंच विकासशील देशों की आवाज उठाने के लिए आदर्श साबित हो सकता था. लेकिन जब सम्मेलन का समापन हुआ, तो यह स्पष्ट हो गया कि जी-20 ने अपनी कूटनीतिक भाषा में कुछ कहा, लेकिन ठोस कार्रवाई से चूक गया.
CBAM: हरित कर या व्यापार संरक्षणवाद?
इस सम्मेलन में यूरोपीय संघ का कार्बन सीमा समायोजन तंत्र (CBAM) चर्चा का केंद्र रहा. यह नीति स्टील, एल्युमीनियम और सीमेंट जैसे उत्पादों पर टैक्स लगाती है, जो यूरोपीय बाजारों में आयात होते हैं. इसे जलवायु संरक्षण के कदम के रूप में पेश किया जा रहा है, लेकिन यह विकासशील देशों पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ डालता है.
भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों के लिए, जो अपने निर्यात पर निर्भर हैं, CBAM एक नया व्यापारिक अवरोध बन गया है. यूरोपीय संघ इसे 'न्यायसंगत प्रतिस्पर्धा' का साधन कहता है, लेकिन असल में यह ग्लोबल साउथ की अर्थव्यवस्थाओं के लिए चुनौती बनकर उभरा है.
G20 की चुप्पी और विकासशील देशों की हताशा
G20 ने CBAM जैसे एकतरफा कदमों पर न तो कोई ठोस विरोध दर्ज किया और न ही कोई विकल्प सुझाया. सम्मेलन के बयान में 'न्यायपूर्ण, समावेशी और टिकाऊ व्यापार' की बात तो की गई, लेकिन उन वास्तविक समस्याओं पर चर्चा नहीं हुई, जिनका सामना विकासशील देश कर रहे हैं.
CBAM के प्रभाव से भारतीय कंपनियों के लिए यूरोपीय बाजारों में प्रतिस्पर्धा करना महंगा हो जाएगा. 2022 में, भारत ने लगभग 27 प्रतिशत लौह, स्टील और एल्युमीनियम का निर्यात यूरोपीय संघ को किया था, जिसकी कुल कीमत 8.2 बिलियन डॉलर थी. लेकिन अब इन उत्पादों पर अतिरिक्त टैक्स लगाने से भारतीय कंपनियों को बड़े नुकसान का सामना करना पड़ सकता है.