कोरापुट/भुवनेश्वर:62 वर्षीय सेबती सिसा बेशकीमती केरांग वस्त्र के ब्रांड एंबेसडर के रूप में एक प्रदर्शनी में भाग लेने के लिए नई दिल्ली जा रही हैं. वह इस लंबी यात्रा के लिए उत्साहित दिखीं. सियान, ऑफ व्हाइट और नारंगी रंग की धारियों वाली 'क्रॉप्ड' साड़ियों में सजी-धजी गदाबा आदिवासी महिला सेबती से ईटीवी भारत ने जब पूछा कहा कि पुनरुद्धार प्रयासों से उन्हें क्या उम्मीदें हैं, तो वह लुप्त हो रही कला की कहानी बताने के लिए उत्सुक दिखाई दीं.
सेबती ने गदाबा की गुटाब बोली में कहा, "यह कहना जल्दबाजी होगी कि ऐसे पुनरुद्धार प्रयासों का क्या नतीजा होगा, लेकिन हम उम्मीद पर जिंदा हैं." वह वर्तमान में जनजाति की पुरानी पीढ़ी के कलाकारों में से एक हैं, जो दूसरी और तीसरी पीढ़ी के गदाबा को कपड़ा बुनने की कला का प्रशिक्षण दे रही हैं. केरांग कपड़ा पीढ़ियों से चला आ रहा है, क्योंकि यह आसानी से घिसता नहीं है. इसे आमतौर पर बेटी की शादी होने पर उपहार में दिया जाता है. खास बात यह है कि जब तक जनजाति में कोई लड़की या लड़का बुनाई की ट्रेनिंग नहीं ले लेता, तब तक उन्हें शादी के लिए योग्य नहीं माना जाता.
चार साल पहले भारतीय राष्ट्रीय कला एवं सांस्कृतिक विरासत ट्रस्ट (INTACH) ने इस कला को जीवित रखने के लिए कदम उठाए. जिला प्रशासन, राज्य हस्तशिल्प और हथकरघा विभाग, वन विभाग और सबसे महत्वपूर्ण बात, गदाबा आदिवासियों का विश्वास जीतने के लिए, INTACH के अधिकारियों ने केरांग बुनाई की कला जानने वाले परिवारों से बात की. जिले के लामातापुट ब्लॉक के रायपाड़ा गांव में एक करघा घर बनाया गया. इसमें महिलाओं के काम करने और युवाओं को प्रशिक्षित करने के लिए करीब 11 करघे लगाए गए.
अब तक ग्रामीणों द्वारा बुना गया कपड़ा INTACH द्वारा लिया गया है, जो उन्हें मुआवजा भी देता है। INTACH द्वारा आयोजित प्रदर्शनी के लिए उनके साथ नई दिल्ली आए एक अधिकारी ने बताया, "केरांग कपड़े की कीमत 2000 से 3000 रुपये के बीच है." मोनी किरसानी और सेबाती ओडिशा से केवल दो प्रतिभागी हैं जिन्हें 29 विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधियों के साथ केरांग के गौरव का प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना गया है.
जब सेबाती इस प्रक्रिया के बारे में बताती हैं कि इसमें धागा सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो केरांग नामक पौधे से बनाया जाता है. यह एक पतला-पतला पौधा होता है, जिसे जड़ से उखाड़ा जाता है और इसके तने को कई बार हथौड़े से पीटने के बाद धूप में सुखाया जाता है. सूखने के बाद इसे कुछ दिनों के लिए ठंडा होने के लिए छोड़ दिया जाता है और फिर बाहर निकालकर हथौड़े से टुकड़े-टुकड़े कर दिया जाता है. उन फटे हुए तनों से धागे बनाए जाते हैं जिन्हें फिर इन्हें चमकाया जाता है.
सेबाती बताती हैं, "धागे की एक बॉल भी बनाना बहुत मुश्किल काम है. हमें पौधों से धागा निकालने में कई दिन लग जाते हैं. सबसे पहले सभी पौधों का इस्तेमाल कपड़े के लिए नहीं किया जा सकता, क्योंकि पुराने पौधे (3-4 साल पुराने) अच्छी गुणवत्ता वाले धागे नहीं देते. इसलिए हमें केवल कम उम्र के पौधों को ही चुनना पड़ता है. लेकिन फिर भी, केरंग धागे से अकेले कपड़ा नहीं बनता. केरंग को बांधने के लिए हमें 'डोम सुता', एक और धागा चाहिए. इसके बाद डोम धागे को सिउना और जाफ़्रा की मदद से रंगा जाता है - जहां जाफ्रा नारंगी रंग के धागे बनाता है, वहीं सिउना नीले रंग के धागे देता है, जिन्हें भी इसी नाम के पौधों से प्राप्त किया जाता है.
सेबाती अपने पैरों की फटी हुई त्वचा दिखाते हुए कहती हैं, "हम हर दिन करघे में लगभग सात घंटे बिताते हैं. जब हम अपने पैरों के चारों ओर धागे लपेटते और चमकाते हैं, तो यह हमारी पिंडली की मांसपेशियों पर बहुत ज़्यादा असर डालता है." वे कहती हैं, "केरंग का एक टुकड़ा बुनने में हमें कम से कम 15 दिन लगते हैं. बैंगलोर और देश के दूसरे हिस्सों के लोग, जो हमसे ये प्रोडक्ट कम कीमत पर खरीदते हैं. वह इसके लिए ज्यादा से ज्यादा 10,000 रुपये तक देते हैं."