दिल्ली

delhi

ETV Bharat / bharat

बंगाल के बांकुड़ा में लगता है 'मुड़ी मेला', भगवान इंद्र से जुड़ी है खास मान्यता - MURI MELA

पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा जिले में द्वारकेश्वर नदी के किनारे केंजाकुड़ा में बंगाली महीने 'माघ' के चौथे दिन सदियों से 'मुड़ी मेला' लगता है.

MURI MELA
बंगाल में मुड़ी मेला (Etv Bharat)

By ETV Bharat Hindi Team

Published : Jan 19, 2025, 6:21 PM IST

बांकुड़ा: मुड़ी जिसे मुरमुरे भी कहा जाता है बंगाल, बिहार और झारखंड में बड़े ही चाव के साथ खाया जाता है. झालमुड़ी से ही मिलता जुलता डिश भेल पुरी होता है जो महानगरों में फेमस है. यहां, हम आपको मुड़ी से जुड़ी एक दिलचस्प परंपरा के बारे में बताने जा रहे हैं. क्या आप जानते हैं कि बंगाल के बांकुड़ा में 'मुड़ी मेला' लगता है. यह मेला न सिर्फ मुड़ी के स्वाद का जश्न मनाता है, बल्कि यहां हर साल सैकड़ों साल पुरानी परंपरा की भी झलक मिलती है.

मुड़ी का स्वाद और मेला का उल्लासः पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा जिले में द्वारकेश्वर नदी के किनारे केंजाकुड़ा में बंगाली महीने 'माघ' के चौथे दिन 'मुड़ी मेला' लगता है. हर साल इस दिन द्वारकेश्वर नदी के किनारे मेला लगता है. सर्दियों की सुबह हजारों लोग अपने परिवार और रिश्तेदारों के साथ नदी के किनारे इकट्ठा होते हैं. वे खीरा, गाजर, प्याज और मिर्च के साथ नींबू के रस के साथ मुड़ी का आनंद लेते हैं. मुड़ी के साथ चॉप, चनाचूर, समोसा और जलेबी जैसी मिठाइयां रहती हैं.

बांकुड़ा की प्रचलित कहानीः एक बार भगवान इंद्र अपने रथ पर सवार होकर जा रहे थे. तभी उन्हें एक जोरदार गर्जना सुनाई दी. रहस्य जानने के लिए इंद्र ने अपना रथ रोका. भगवान वरुण से पूछा कि क्या उनकी चाल से धरती पर कोई तूफान आया है. जब वरुण ने इनकार किया तो इंद्र ने नारद को शोर की जांच करने के लिए नियुक्त किया. नारद ने दुनिया भर में भ्रमण करने के बाद आखिरकार पता लगाया कि बांकुड़ा के लोगों ने सुबह 7 बजे मुरमुरे पर पानी डाला था. जिसके परिणामस्वरूप जोरदार गर्जना हुई जो स्वर्ग तक पहुंच गई थी. इसलिए इस जिले के लोगों ने अपने पसंदीदा भोजन को समर्पित एक मेले का आयोजन करना शुरू किया.

कीर्तन सुनने आते थे लोगः लोगों का मानना ​​​​है कि सैकड़ों वर्षों से केंजाकुड़ा में द्वारकेश्वर नदी के तट पर माता संजीवनी का आश्रम स्थित है. हर साल मकर संक्रांति के दिन इस आश्रम में 'संकीर्तन' शुरू होता है. 'माघ' के चौथे दिन समाप्त होता है. यह भी माना जाता है कि प्राचीन काल में, दूर-दूर से लोग 'संकीर्तन' सुनने के लिए आश्रम में आते थे. इसके बाद वे आश्रम में रात बिताते और अगली सुबह सभी लोग द्वारकेश्वर नदी के किनारे बैठकर मुरमुरे खाते और अपने घर लौट जाते. समय के साथ यह परंपरा एक वार्षिक मेले में बदल गया.

इसे भी पढ़ेंःअसम का जोनबील मेला, यहां पैसों से व्यापार नहीं होता, जानें 500 साल पुराना इतिहास

इसे भी पढ़ेंःमहाकुंभ मेला कैसे बना प्रयागराज के लिए वरदान?

ABOUT THE AUTHOR

...view details