विकासनगर (उत्तराखंड):उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में पारंपरिक कृषि करने वाले किसान कई फसलों का उत्पादन करते आ रहे हैं. बावजूद इसके अब धीरे-धीरे किसानों ने भी आधुनिकता की इस दौड़ में खुद को पिछड़ता हुआ देख खेती किसानी के तरीकों में बदलाव किया है. किसान अधिक आय वाली फसलों पर जोर दे रहे हैं, जिसमें नकदी फसलें शामिल हैं. ऐसे में उत्तराखंड में पारंपरिक तरीके से की जाने वाली फसलों का उत्पादन कम होता जा रहा है. जिसे पौष्टिकता का खजाना माना जाता है और जिनका उत्पादन अब नाम मात्र ही हो रहा है. जबकि सरकार इसको बढ़ावा देने के लिए पुरजोर ढंग से लगी हुई है.
किसानों ने बताई उपयोगिता:जौनसार के ईच्छला गांव के किसान अतर सिंह ने कहा कि कौणी का उपयोग पहले बहुत ज्यादा होता था. बुजुर्गों लोगों द्वारा बच्चों को खसरा, बुखार में कौणी को खिलाया जाता था. शुगर के लिए भी इसे लाभदायक माना जाता है. अतर सिंह ने कहा कि कौणी,मंडुवा और इन्य मोटे अनाजों को बोना किसानों ने छोड़ दिया है. किसान नकदी की फसल का उत्पादन कर रहे हैं. लेकिन पारंपरिक स्थानीय उत्पादों को भी किसानों ने उत्पादन करना चाहिए. जिससे इसकी उपयोगिता बढ़ सके
इस अनाज में कीड़ा नहीं लगता:इतिहास के जानकार श्रीचंद शर्मा बताते है कि कोंदा (रागी), झंगौरा, चैणी और कौणी ऐसा मोटा अनाज है, जो इसका दाना पर कवर होता है. जौ कई सालों तक स्टोर किया जा सकता है. इन अनाजों में कीड़ा नहीं लगता है. इन फसलों को सबसे ज्यादा नुकसान खेतों में खड़ी फसल को सूवों (तोते) का झुंड नुकसान पहुंचाता है. लेकिन कौणी की फसल उत्पादन करने में किसानों को ज्यादा मेहनत भी नहीं करनी पड़ती. यह फसल एक बार के लिए सूखे को भी झेल लेती है. हमें नकदी फसलों के साथ ही पारंपरिक फसलों का भी उत्पादन करना आवश्यक है.