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उत्तराखंड: 170 सालों से गुमनामी में जिले के बागवान, हिमाचल कमा रहा नाम

उत्तराखंड के बागवानों का सेब हिमाचली पेटियों में बिक रहा रहा है. राज्य में भले ही सेब अपनी स्थापना की 170 साल पूरे करने जा रहा है, लेकिन किसी भी सरकारों ने सेब बागवानों के लिए ठोस नीति नहीं बनाई.

सेब बागवान
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Published : Dec 22, 2019, 12:35 PM IST

पुरोलाः यूं तो उत्तराखंड कृषि प्रधान राज्य है और यहां का अधिकांश भू-भाग भी जंगलों से घिरा है और इन्हीं जंगलों के बीच यहां का बागवान सेब को उगता है. सेब की पौध रोपण कार्य से लेकर मंडी तक पहुंचने के सफर में किन हालातों से काश्तकार को गुजरना पड़ता है और सेब कैसा बना आजीविका का साधन जानते हैं. इस खास रिपोर्ट में.

भारत में सेब की खेती का सूत्रपात हिमाचल, कुल्लू के बंदरोल में सन 1845 में अंग्रेज कैप्टन आरसी ली ने किया था. उन्होंने इंग्लैंड से सेब के पौध मंगवाकर यहां लगाए. इस बाग का नाम बंदरोल ऑर्चड रखा गया तो वहीं उत्तराखंड में नैनीताल जिले के रामनगर क्षेत्र में सन 1850 में मिशनरियों तो उत्तरकाशी जनपद के हर्षिल में सन 1859 में एफ ई विलसन नें गढ़वाल मंडल का पहला सेब का बाग तैयार किया.

उत्तराखंड के सेब बागवान पहचान को तरस रहे.

तकनीक का मिला सहारा

भारत में सेब के 170 साल के इतिहास में काफी बदलाव देखने को मिले हैं जहां पूर्व में सेब की पौध 10 से 12 सालों में फसल देती थी वहीं, अब प्रयोगशालाओं में तैयार पौध सिर्फ 2 साल में ही फसल देने लगती है. बदलते दौर के साथ सेब के पेड़ की ऊंचाई भी घटने लगी है. साथ ही जहां पारंपरिक विधि से पूर्व में 1 एकड़ में 100 पौधे का रोपण होता था. वहीं, अब एक एकड़ में 400 से लेकर 1000 पौधों को रोपा जा सकता है.

उत्तराखंड का सेब नहीं बना ब्रांड

राज्य में भले ही सेब अपनी स्थापना की 170 साल पूरे करने जा रहा है, लेकिन किसी भी सरकारों ने सेब बागवानों के लिए ठोस नीति नहीं बनाई. आज भी उत्तराखंड का सेब बागवान हिमाचल के ब्रांड से अपने सेबों को बाजारों में बेचने को मजबूर है. हिमाचल की पेटियों में सेब होने से उत्तराखंडी सेब को पहचान नहीं मिल पा रही है. लगातार मांग के बावजूद बागवानों की समस्याओं का समाधान नहीं हो पा रहा है. उत्तराखंड के सेब बागवान वर्षभर कड़ी मेहनत के बाद सेब की फसल तैयार करते हैं.

फसल तैयार होने के बाद सेब को समय से मंडियों तक पहुंचाने की जुगत में लगे रहते हैं. सरकारी उपेक्षा के चलते रवांईघाटी के सेब बागवानों को पहले तो सेब के पेड़ों व सेब को बीमारी से बचाने के लिए दवाइयों की व्यवस्था नहीं हो पाती है और बाद में जब किसान किसी तरह सेब की फसल तैयार कर मंडियों तक पहुंचाना चाहते हैं तो उन्हें समय से पेटियां भी उपलब्ध नहीं हो पाती हैं.

यह भी पढ़ेंः नए विश्वविद्यालय की कवायद तेज, पर्वतीय क्षेत्रों के छात्रों को मिलेगा सुविधा

सरकार काश्तकारों को उत्तराखंड मार्क वाले सेब के बॉक्स तक उपलब्ध नहीं करवा पा रही है. काश्तकार राज्य में सेब के समर्थन मूल्य की लगातार मांग करते आ रहे हैं लेकिन बेसुध सरकार है कि इन्हें इनके ही हालातों पर छोड़ दिया है. बावजूद इसके काश्तकार अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं. सरकार को चाहिए राज्य में सेब के लिए एक ठोस नीति बनाई जाए. सेब बागवानों के लिए समय-समय पर कृषि वैज्ञानिक बगीचों में पहुंचकर सेब के हालातों पर काश्तकारों से चर्चा परिचर्चा करें जिससे सेब की उन्नत किस्में बाजार में बिक सकें.

पुरोलाः यूं तो उत्तराखंड कृषि प्रधान राज्य है और यहां का अधिकांश भू-भाग भी जंगलों से घिरा है और इन्हीं जंगलों के बीच यहां का बागवान सेब को उगता है. सेब की पौध रोपण कार्य से लेकर मंडी तक पहुंचने के सफर में किन हालातों से काश्तकार को गुजरना पड़ता है और सेब कैसा बना आजीविका का साधन जानते हैं. इस खास रिपोर्ट में.

भारत में सेब की खेती का सूत्रपात हिमाचल, कुल्लू के बंदरोल में सन 1845 में अंग्रेज कैप्टन आरसी ली ने किया था. उन्होंने इंग्लैंड से सेब के पौध मंगवाकर यहां लगाए. इस बाग का नाम बंदरोल ऑर्चड रखा गया तो वहीं उत्तराखंड में नैनीताल जिले के रामनगर क्षेत्र में सन 1850 में मिशनरियों तो उत्तरकाशी जनपद के हर्षिल में सन 1859 में एफ ई विलसन नें गढ़वाल मंडल का पहला सेब का बाग तैयार किया.

उत्तराखंड के सेब बागवान पहचान को तरस रहे.

तकनीक का मिला सहारा

भारत में सेब के 170 साल के इतिहास में काफी बदलाव देखने को मिले हैं जहां पूर्व में सेब की पौध 10 से 12 सालों में फसल देती थी वहीं, अब प्रयोगशालाओं में तैयार पौध सिर्फ 2 साल में ही फसल देने लगती है. बदलते दौर के साथ सेब के पेड़ की ऊंचाई भी घटने लगी है. साथ ही जहां पारंपरिक विधि से पूर्व में 1 एकड़ में 100 पौधे का रोपण होता था. वहीं, अब एक एकड़ में 400 से लेकर 1000 पौधों को रोपा जा सकता है.

उत्तराखंड का सेब नहीं बना ब्रांड

राज्य में भले ही सेब अपनी स्थापना की 170 साल पूरे करने जा रहा है, लेकिन किसी भी सरकारों ने सेब बागवानों के लिए ठोस नीति नहीं बनाई. आज भी उत्तराखंड का सेब बागवान हिमाचल के ब्रांड से अपने सेबों को बाजारों में बेचने को मजबूर है. हिमाचल की पेटियों में सेब होने से उत्तराखंडी सेब को पहचान नहीं मिल पा रही है. लगातार मांग के बावजूद बागवानों की समस्याओं का समाधान नहीं हो पा रहा है. उत्तराखंड के सेब बागवान वर्षभर कड़ी मेहनत के बाद सेब की फसल तैयार करते हैं.

फसल तैयार होने के बाद सेब को समय से मंडियों तक पहुंचाने की जुगत में लगे रहते हैं. सरकारी उपेक्षा के चलते रवांईघाटी के सेब बागवानों को पहले तो सेब के पेड़ों व सेब को बीमारी से बचाने के लिए दवाइयों की व्यवस्था नहीं हो पाती है और बाद में जब किसान किसी तरह सेब की फसल तैयार कर मंडियों तक पहुंचाना चाहते हैं तो उन्हें समय से पेटियां भी उपलब्ध नहीं हो पाती हैं.

यह भी पढ़ेंः नए विश्वविद्यालय की कवायद तेज, पर्वतीय क्षेत्रों के छात्रों को मिलेगा सुविधा

सरकार काश्तकारों को उत्तराखंड मार्क वाले सेब के बॉक्स तक उपलब्ध नहीं करवा पा रही है. काश्तकार राज्य में सेब के समर्थन मूल्य की लगातार मांग करते आ रहे हैं लेकिन बेसुध सरकार है कि इन्हें इनके ही हालातों पर छोड़ दिया है. बावजूद इसके काश्तकार अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं. सरकार को चाहिए राज्य में सेब के लिए एक ठोस नीति बनाई जाए. सेब बागवानों के लिए समय-समय पर कृषि वैज्ञानिक बगीचों में पहुंचकर सेब के हालातों पर काश्तकारों से चर्चा परिचर्चा करें जिससे सेब की उन्नत किस्में बाजार में बिक सकें.

Intro:स्थान -पुरोला स्पेशल -स्टोरी।
रेडी टू पैकेज -------
एंकर- यूं तो उत्तराखंड कृषि प्रधान राज्य है।और यहां का अधिकांश भू भाग भी जंगलों से घिरा है ।और इन्हीं जंगलों के बीच यहां का बागवान सेब को उगता है सेब की पौध रोपण कार्य से लेकर मंडी तक पहुंचने के सफर में किन हालातों से कास्तकार को गुजरना पड़ता है।और सेब कैसा बना आजीविका का साधन जानते हैं इस ख़ास रिपोर्ट में ,,,,,,।
ओपनिग पीटूसी,,,,,,




Body:वीओ-भारत में सेब की खेती का सूत्रपात हिमांचल, कुलु के बंदरोल में सन 1845 को अंग्रेज कैप्टन आरसी ली नें शुरुआत की उन्होंने इंग्लैंड से सेब के पौध मंगवाकर यहां लगाए इस बाग का नाम बंदरोल अर्चाड रखा गया तो वहीं उत्तराखण्ड में नैनीताल जिले के रामनगर छेत्र में सन 1850 में मिशनरियों तो उत्तरकाशी जनपद के हर्षिल में सन 1859 में एफ ई विलसन नें गढ़वाल मंडल का
पहला सेब का बाग तैयार किया । भारत मे सेब के 170 साल के इतिहास में काफी बदलाव देखने को मिले हैं जहां पूर्व में सेब की पौध 10 से 12 सालों में फसल देती थी वहीं अब प्रयोगशालाओं में तैयार पौध सिर्फ 2 साल में ही फसल देने लगती हैं बदलते दौर के साथ सेब के पेड़ की ऊंचाई भी घटने लगी है साथ ही जहां पारंपरिक विधि से पूर्व में 1 एकड़ में 100 पौधे का रोपण होता था वहीं अब एक एकड़ में 400 से लेकर 1000 पौधों को रोपा जा सकता है।
बाईट- गजेंद्र चौहान (कास्तकार)
बाईट-मातवर सिंह (कास्तकार)
वीओ- राज्य में भले ही सेब अपनी स्थापना की 170 साल पूरे करने जा रहा है लेकिन किसी भी सरकारों ने सेब बागवानों के लिए ठोस नीति नहीं बनाई आज भी उत्तराखंड का सेब बागवान हिमाचल के ब्रांड से अपने सेबों को बाजारों में बेचने को मजबूर है और सरकार काश्तकारों को उत्तराखंड मार्का की अदद सेब के बॉक्स तक उपलब्ध नहीं करवा पा रही है काश्तकार राज्य में सेब के समर्थन मूल्य की लगातार मांग करते आ रहे हैं लेकिन बेसुध सरकार है कि इन्हें इनके ही हालातों पर छोड़ दिया है बावजूद इसके कास्तकार अच्छा मुनाफा कमा रहे है।
p2c ,,,,,,,


Conclusion:वीओ- सरकार को चाहिए राज्य में सेब के लिए एक ठोस नीति बनाई जाय सेब बागवानों के लिए समय-समय पर कृषि वैज्ञानिक बगीचों में पहुंचकर सेब के हालातों पर काश्तकारों से चर्चा परिचर्चा करें जिससे सेब की। उन्नत किस्में की बाजार में बिक सके।



नोट-----सेब के फलदार फ़ुटेज लाइब्रेरी से ले लें ,सेब के सीजन के फ़ुटेज हैं ।
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