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विलुप्ति की कगार पर पहुंच रहे उत्तराखंड के पौराणिक वाद्य यंत्र, बजगियों ने सरकार से लगाई गुहार

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Published : Oct 22, 2022, 2:22 PM IST

Updated : Oct 22, 2022, 2:29 PM IST

उत्तराखंड के पौराणिक वाद्य यंत्रों को संरक्षित करने के लिए आवाज उठ रही है. उत्तरकाशी के बजगियों का कहना है कि आज हमारे पौराणिक वाद्य यंत्र ढोल, मसक, रणसिंगां आदि विलुप्ति की कगार पर हैं. सरकार की मदद के बिना इन्हें बचाना संभव नहीं है. बजगी इससे भी निराश हैं कि उनकी नई पीढ़ी भी पौराणिक वाद्य यंत्रों को लेकर उत्साहित नहीं है.

musical instrument
पौराणिक वाद्य यंत्र

उत्तरकाशी: आज हमारे पौराणिक वाद्य यंत्र ढोल, मसक, रणसिंगां आदि विलुप्ति की कगार पर हैं. इनको बजाने वाले बजगियों का कहना है कि आज लोग पश्चिमी संस्कृति की चकाचौंध के पीछे भाग रहे हैं और अपनी पौराणिक संस्कृति को छोड़ रहे है. इस कारण हमारी पौराणिक संस्कृति जिसमें हमारे पौराणिक वाद्य यंत्र भी आते हैं, धीरे-धीरे विलुप्त हो रहे हैं. आज आवश्यकता है इनको जीवित रखने की. ये जीवित रहेंगे तो हमारी पौराणिक संस्कृति भी जीवित रहेगी. वहीं उत्तरकाशी में पूर्व सैनिक कल्याण संगठन द्वारा सैनिक मेले में प्रतिवर्ष ढोल सागर प्रतियोगिता का आयोजन करके पौराणिक वाद्य यंत्र जीवित रहें इस ओर प्रयास किया जा रहा है.

पौराणिक वाद्य यंत्रों के बाजगी कहते हैं कि हमारी रोजी-रोटी पुरातन समय से इन्हीं वाद्य यंत्रों पर चल रही है. आज जब पाश्चात्य संस्कृति के कारण वाद्य यंत्र विलुप्त हो रहे हैं तो अब हमारे सामने रोजी-रोटी का भी संकट खड़ा हो गया है. हमारे बच्चे भी इन पौराणिक वाद्य यंत्रों को बजाने में रुचि नहीं रखते हैं. बच्चों की रुचि भी पौराणिक वाद्य यंत्रों में नहीं रही.

इन वाद्य यंत्रों को बजाने वाले बजगियों का कहना है कि जब से शिव की उत्पत्ति हुई तब से ही ढोल दमाऊ की उत्पत्ति हुई है. हम लोग राज्य और केंद्र सरकार से मांग करते हैं कि जनपद, ब्लॉक और ग्राम स्तर पर पौराणिक वाद्य यंत्रों की शिक्षा के लिए सरकार को स्कूल की व्यवस्था करनी चाहिए. ताकि हमारी यह पौराणिक संस्कृति जीवित रहे.
ये भी पढ़ें: ढोल दमाऊ की थाप पर धरती पर अवतरित होते हैं देवता, विधा को संजाने की दरकार

ढोल सागर के ज्ञाता जयप्रकाश राणा का कहना है कि राजस्थान सरकार की तर्ज पर न्याय और ग्राम पंचायत स्तर पर पौराणिक वाद्य यंत्रों को सीखने के लिए केंद्र या स्कूल खुलना चाहिए. हमारे बाजगी समुदाय के लोगों को सरकार की ओर से सहायता मिलनी चाहिए. तभी हमारे उत्तराखंड के यह पौराणिक वाद्य यंत्र जीवित रह पाएंगे.

उत्तरकाशी: आज हमारे पौराणिक वाद्य यंत्र ढोल, मसक, रणसिंगां आदि विलुप्ति की कगार पर हैं. इनको बजाने वाले बजगियों का कहना है कि आज लोग पश्चिमी संस्कृति की चकाचौंध के पीछे भाग रहे हैं और अपनी पौराणिक संस्कृति को छोड़ रहे है. इस कारण हमारी पौराणिक संस्कृति जिसमें हमारे पौराणिक वाद्य यंत्र भी आते हैं, धीरे-धीरे विलुप्त हो रहे हैं. आज आवश्यकता है इनको जीवित रखने की. ये जीवित रहेंगे तो हमारी पौराणिक संस्कृति भी जीवित रहेगी. वहीं उत्तरकाशी में पूर्व सैनिक कल्याण संगठन द्वारा सैनिक मेले में प्रतिवर्ष ढोल सागर प्रतियोगिता का आयोजन करके पौराणिक वाद्य यंत्र जीवित रहें इस ओर प्रयास किया जा रहा है.

पौराणिक वाद्य यंत्रों के बाजगी कहते हैं कि हमारी रोजी-रोटी पुरातन समय से इन्हीं वाद्य यंत्रों पर चल रही है. आज जब पाश्चात्य संस्कृति के कारण वाद्य यंत्र विलुप्त हो रहे हैं तो अब हमारे सामने रोजी-रोटी का भी संकट खड़ा हो गया है. हमारे बच्चे भी इन पौराणिक वाद्य यंत्रों को बजाने में रुचि नहीं रखते हैं. बच्चों की रुचि भी पौराणिक वाद्य यंत्रों में नहीं रही.

इन वाद्य यंत्रों को बजाने वाले बजगियों का कहना है कि जब से शिव की उत्पत्ति हुई तब से ही ढोल दमाऊ की उत्पत्ति हुई है. हम लोग राज्य और केंद्र सरकार से मांग करते हैं कि जनपद, ब्लॉक और ग्राम स्तर पर पौराणिक वाद्य यंत्रों की शिक्षा के लिए सरकार को स्कूल की व्यवस्था करनी चाहिए. ताकि हमारी यह पौराणिक संस्कृति जीवित रहे.
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ढोल सागर के ज्ञाता जयप्रकाश राणा का कहना है कि राजस्थान सरकार की तर्ज पर न्याय और ग्राम पंचायत स्तर पर पौराणिक वाद्य यंत्रों को सीखने के लिए केंद्र या स्कूल खुलना चाहिए. हमारे बाजगी समुदाय के लोगों को सरकार की ओर से सहायता मिलनी चाहिए. तभी हमारे उत्तराखंड के यह पौराणिक वाद्य यंत्र जीवित रह पाएंगे.

Last Updated : Oct 22, 2022, 2:29 PM IST
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