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व्हाट्सएप ग्रुप के जरिये प्राचीन भाषा से जुड़ रही युवा पीढ़ी, रं समुदाय ने उठाया सराहनीय कदम - रङ्ग भाषा विलुप्त

पिथौरागढ़ जिले की दारमा, व्यास और चौदांस घाटी में रहने वाले रं समुदाय के लोग रामायण और महाभारत काल से ही अपनी विशेष भाषा को सरंक्षित किये हुए है. बहरहाल इस प्राचीन रङ्ग भाषा की कोई लिपि नहीं है, यह सिर्फ बोली में ही चलन में है. ऐसे में इस समुदाय से जुड़े लोग प्राचीन लोकभाषा को सोशल मीडिया के जरिये देवनागरी लिपि में संरक्षित करने का प्रयास कर रहे हैं.

व्हाट्सएप ग्रुप के जरिये प्राचीन भाषा से जुड़ रही युवा पीढ़ी.
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Published : Nov 14, 2019, 6:20 PM IST

Updated : Nov 14, 2019, 8:07 PM IST

पिथौरागढ़: सांस्कृतिक तौर पर खास पहचान रखने वाली प्राचीन रं समुदाय की बोली विलुप्त होने की कगार पर है. रंं जनजाति के लोगों ने विलुप्त हो रही अपनी रङ्ग भाषा को संरक्षित करने का बीड़ा उठाया है. रं समुदाय के लोग इस प्राचीन लोकभाषा को सोशल मीडिया के जरिये देवनागरी लिपि में संरक्षित करने का प्रयास कर रहे हैं. इस पहल से अब ट्विटर, फेसबुक और व्हाट्सएप में भी लोग रङ्गं भाषा से रूबरू हो सकेंगे.

बता दें कि पिथौरागढ़ जिले की दारमा, व्यास और चौदांस घाटी में रहने वाले रं समुदाय के लोग रामायण और महाभारत काल से ही अपनी विशेष भाषा को बचाये हुए हैं. बहरहाल इस प्राचीन रङ्ग भाषा की कोई लिपि नहीं है, यह सिर्फ बोलचाल में ही चलन में है. भारत, चीन और नेपाल सीमा पर निवास करने वाले रं समुदाय के लोग अपनी प्राचीन रङ्ग भाषा के लिए भी जाने जाते हैं. इस भाषा को स्थानीय लोग रङ्ग ल्वो भी कहते हैं. मूल रूप से धारचूला में रहने वाले समुदाय के लोग ही इस भाषा का आम बोलचाल में प्रयोग करते है. जबकि, धारचूला से पलायन कर चुकी युवा पीढ़ी इस भाषा से अंजान है. लेकिन, अब इस भाषा को सोशल मीडिया के माध्यम से संरक्षित करने के प्रयास तेज होने लगे हैं.

व्हाट्सएप ग्रुप के जरिये प्राचीन भाषा से जुड़ रही युवा पीढ़ी.

पढ़ें- गुलदार से भाई को बचाने वाली 'तीलू रौतेली' लौटी अपने घर, अब देश के लिए करना चाहती है ये काम

व्हाट्सएप ग्रुप के जरिये प्राचीन भाषा से जुड़ रही युवा पीढ़ी

रं समुदाय के लोग लंबे समय से व्हाट्सएप ग्रुप के जरिये युवा पीढ़ी को अपनी प्राचीन भाषा से जोड़ रहे हैं. ग्रुप के माध्यम से रङ्गं छंदों, गीतों और कहानियों का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है. धीरे-धीरे अब इस भाषा का प्रयोग ट्विटर और फेसबुक में भी शुरू होने लगा है. रङ्गं भाषा की अपनी कोई लिपि ना होने के कारण इसके प्रयोग को लेकर दो मत सामने आ रहे हैं. रं समुदाय के बुजुर्ग लोग इसे देवनागरी लिपि में तैयार करने पर जोर दे रहे हैं. वहीं, युवा लोग इसे रोमन में लिखने की मांग कर रहे हैं. बहरहाल दोनों ही तरीकों से इसका इस्तेमाल किया जा रहा है.

रङ्गं भाषा के संरक्षण के लिए समुदाय के लोगों ने नंदन न्यास का गठन किया गया है. इसके जरिये समय-समय पर वर्कशॉप की जाती है और रङ्गं भाषा को लिपिबद्ध करने के प्रयास किये जा रहे हैं. रङ्गं भाषा के कई शब्द इतने जटिल है कि उन्हें देवनागरी लिपि में लिखना आसान नहीं है. ऐसे में समुदाय के लोगों द्वारा रङ्गं लिपि को विकसित करने के भी प्रयास किये जा रहे हैं. इसके साथ ही रङ्गं समुदाय पत्राचार, सांकृतिक महोत्सवों और मेलो में रङ्गं भाषा का प्रयोग करते आ रहा हैं.

सदियों पुरानी है रङ्ग भाषा
पिथौरागढ़ जिले की दारमा, व्यास और चौदांस घाटी में रहने वाली रं जनजाति का इतिहास सदियों पुराना हैं. कहा जाता है कि महाभारत के रचयिता महर्षि व्यास के नाम पर ही व्यास घाटी का नाम पड़ा है. लंबे समय तक महर्षि वेद व्यास की तपोस्थली रहने और उनके निवास के कारण ही व्यास घाटी का नामकरण हुआ. स्थानीय लोग व्यास घाटी को ब्यनखों कहते हैं. हर साल यहां ऋषि व्यास मेले का भी आयोजन किया जाता है. वहीं, एक किंवदंती ये भी है कि जब पांडव हिमालय यात्रा पर थे तो वे कुटी गांव पहुंचे. जहां रं समुदाय के लोगों ने उनका स्‍वागत किया था. उनकी मां कुंती के नाम पर ही गांव का नाम कुटी पड़ा है. रं समुदाय में करीब 15,000 सदस्‍य बचे हैं. जिनमें से अधिकांश पिथौरागढ़ जिले और नेपाल के कुछ हिस्‍सों में रहते हैं. भारत में रं जनजाति को अनुसूचित जनजाति का दर्जा भी मिला हुआ है.

पिथौरागढ़: सांस्कृतिक तौर पर खास पहचान रखने वाली प्राचीन रं समुदाय की बोली विलुप्त होने की कगार पर है. रंं जनजाति के लोगों ने विलुप्त हो रही अपनी रङ्ग भाषा को संरक्षित करने का बीड़ा उठाया है. रं समुदाय के लोग इस प्राचीन लोकभाषा को सोशल मीडिया के जरिये देवनागरी लिपि में संरक्षित करने का प्रयास कर रहे हैं. इस पहल से अब ट्विटर, फेसबुक और व्हाट्सएप में भी लोग रङ्गं भाषा से रूबरू हो सकेंगे.

बता दें कि पिथौरागढ़ जिले की दारमा, व्यास और चौदांस घाटी में रहने वाले रं समुदाय के लोग रामायण और महाभारत काल से ही अपनी विशेष भाषा को बचाये हुए हैं. बहरहाल इस प्राचीन रङ्ग भाषा की कोई लिपि नहीं है, यह सिर्फ बोलचाल में ही चलन में है. भारत, चीन और नेपाल सीमा पर निवास करने वाले रं समुदाय के लोग अपनी प्राचीन रङ्ग भाषा के लिए भी जाने जाते हैं. इस भाषा को स्थानीय लोग रङ्ग ल्वो भी कहते हैं. मूल रूप से धारचूला में रहने वाले समुदाय के लोग ही इस भाषा का आम बोलचाल में प्रयोग करते है. जबकि, धारचूला से पलायन कर चुकी युवा पीढ़ी इस भाषा से अंजान है. लेकिन, अब इस भाषा को सोशल मीडिया के माध्यम से संरक्षित करने के प्रयास तेज होने लगे हैं.

व्हाट्सएप ग्रुप के जरिये प्राचीन भाषा से जुड़ रही युवा पीढ़ी.

पढ़ें- गुलदार से भाई को बचाने वाली 'तीलू रौतेली' लौटी अपने घर, अब देश के लिए करना चाहती है ये काम

व्हाट्सएप ग्रुप के जरिये प्राचीन भाषा से जुड़ रही युवा पीढ़ी

रं समुदाय के लोग लंबे समय से व्हाट्सएप ग्रुप के जरिये युवा पीढ़ी को अपनी प्राचीन भाषा से जोड़ रहे हैं. ग्रुप के माध्यम से रङ्गं छंदों, गीतों और कहानियों का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है. धीरे-धीरे अब इस भाषा का प्रयोग ट्विटर और फेसबुक में भी शुरू होने लगा है. रङ्गं भाषा की अपनी कोई लिपि ना होने के कारण इसके प्रयोग को लेकर दो मत सामने आ रहे हैं. रं समुदाय के बुजुर्ग लोग इसे देवनागरी लिपि में तैयार करने पर जोर दे रहे हैं. वहीं, युवा लोग इसे रोमन में लिखने की मांग कर रहे हैं. बहरहाल दोनों ही तरीकों से इसका इस्तेमाल किया जा रहा है.

रङ्गं भाषा के संरक्षण के लिए समुदाय के लोगों ने नंदन न्यास का गठन किया गया है. इसके जरिये समय-समय पर वर्कशॉप की जाती है और रङ्गं भाषा को लिपिबद्ध करने के प्रयास किये जा रहे हैं. रङ्गं भाषा के कई शब्द इतने जटिल है कि उन्हें देवनागरी लिपि में लिखना आसान नहीं है. ऐसे में समुदाय के लोगों द्वारा रङ्गं लिपि को विकसित करने के भी प्रयास किये जा रहे हैं. इसके साथ ही रङ्गं समुदाय पत्राचार, सांकृतिक महोत्सवों और मेलो में रङ्गं भाषा का प्रयोग करते आ रहा हैं.

सदियों पुरानी है रङ्ग भाषा
पिथौरागढ़ जिले की दारमा, व्यास और चौदांस घाटी में रहने वाली रं जनजाति का इतिहास सदियों पुराना हैं. कहा जाता है कि महाभारत के रचयिता महर्षि व्यास के नाम पर ही व्यास घाटी का नाम पड़ा है. लंबे समय तक महर्षि वेद व्यास की तपोस्थली रहने और उनके निवास के कारण ही व्यास घाटी का नामकरण हुआ. स्थानीय लोग व्यास घाटी को ब्यनखों कहते हैं. हर साल यहां ऋषि व्यास मेले का भी आयोजन किया जाता है. वहीं, एक किंवदंती ये भी है कि जब पांडव हिमालय यात्रा पर थे तो वे कुटी गांव पहुंचे. जहां रं समुदाय के लोगों ने उनका स्‍वागत किया था. उनकी मां कुंती के नाम पर ही गांव का नाम कुटी पड़ा है. रं समुदाय में करीब 15,000 सदस्‍य बचे हैं. जिनमें से अधिकांश पिथौरागढ़ जिले और नेपाल के कुछ हिस्‍सों में रहते हैं. भारत में रं जनजाति को अनुसूचित जनजाति का दर्जा भी मिला हुआ है.

Intro:सांस्कृतिक तौर पर खास पहचान रखने वाली रङ्गं जनजाति ने अपनी विलुप्त हो रही प्राचीन रङ्ग भाषा को संरक्षित करने का बेड़ा उठाया है। पिथौरागढ़ जिले की दारमा, व्यास और चौदांस घाटी में रहने वाले रङ्गं समुदाय के लोग रामायण और महाभारत काल से ही अपनी विशेष भाषा को बचाये हुए है। बहरहाल इस प्राचीन रङ्ग भाषा की कोई लिपि नहीं है, यह सिर्फ बोलने के जरिए ही चलन में है। रङ्ग समुदाय के लोग इस प्राचीन लोकभाषा को सोशल मीडिया के जरिये देवनागरी लिपि में संरक्षित करने का प्रयास कर रहे है। अब ट्विटर, फेसबूक और व्हाट्सएप में भी लोग रङ्गं भाषा से रुबरु हो सकेंगे।


Body:भारत, चीन और नेपाल सीमा पर निवास करने वाले रङ्ग समुदाय के लोग अपनी प्राचीन रङ्ग भाषा के लिए भी जाने जाते है। इस भाषा को स्थानीय लोग रङ्ग ल्वो भी कहते हैं। मूल रूप से धारचूला में रहने वाले समुदाय के लोग ही इस भाषा का आम बोलचाल में प्रयोग करते है। जबकि धारचूला से पलायन कर चुकी युवा पीढ़ी इस भाषा से अंजान है। मगर अब इस भाषा को सोशल मीडिया के माध्यम से संरक्षित करने के प्रयास तेज होने लगे है। रङ्गं समुदाय के लोग लंबे समय से व्हाट्सएप ग्रुप के जरिये युवा पीढ़ी को अपनी प्राचीन भाषा से जोड़ रहे है। ग्रुप के माध्यम से रङ्गं छंदों, गीतों और कहानियों का प्रचार प्रसार किया जा रहा है। धीरे-धीरे अब इस भाषा का प्रयोग ट्विटर और फेसबूक में भी शुरू हो गया है। रङ्गं भाषा की अपनी कोई लिपि ना होने के कारण इसके प्रयोग को लेकर दो मत सामने आ रहे है। रङ्गं समुदाय के बुजुर्ग लोग इसे देवनागरी लिपि में तैयार करने पर जोर दे रहे है वहीं युवा लोग इसे रोमन में लिखने की मांग कर रहे है। बहरहाल दोनों ही तरीकों से इसका किया जा रहा है।

रङ्गं भाषा को संरक्षण के लिए समुदाय के लोगों ने नंदन न्यास का गठन किया गया है। इसके जरिये समय-समय पर वर्कशॉप की जाती है और रङ्गंं भाषा को लिपिबद्ध करने के प्रयास किये जा रहे है। रङ्गं भाषा के कई शब्द इतने जटिल है कि उन्हें देवनागरी लिपि में लिखना आसान नही है। ऐसे में समुदाय के लोगों द्वारा रङ्गं लिपि को विकसित करने के भी प्रयास किये जा रहे है। इसके साथ ही रङ्गं समुदाय पत्राचार, सांकृतिक महोत्सवों और मेलो में रङ्गंं भाषा का प्रयोग करते आ रहा है।

रामायण और महाभारतकाल से जुड़ा है रङ्गंं समुदाय का इतिहास

पिथौरागढ़ जिले की दारमा, व्यास और चौदांस घाटी में रहने वाली रङ्गं जनजाति का इतिहास सदियों पुराना है। कहा जाता है कि महाभारत के रचयिता महर्षि व्यास के नाम पर ही व्यास घाटी का नाम पड़ा है। लंबे समय तक महर्षि वेद व्यास की तपोस्थली रहने और उनके निवास के कारण ही व्यास घाटी का नामकरण हुवा। स्थानीय लोग व्यास घाटी को ब्यनखों कहते है। हर साल यहां ऋषि व्यास मेले का भी आयोजन किया जाता है। वहीं एक किंवदंती ये भी है कि जब पांडव हिमालय यात्रा पर थे तो वे कुटी गांव पहुंचे। जहां रङ्गं कबीले ने उनका स्‍वागत किया था। उनकी मां कुंती के नाम पर ही गांव का नाम कुटी पड़ा है। रङ्गं समुदाय में करीब 15, 000 सदस्‍य बचे हैं जिनमें से अधिकांश पिथौरागढ़ जिले और नेपाल के कुछ हिस्‍सों में रहते हैं। भारत में रङ्गं जनजाति को अनुसूचित जनजाति का दर्जा भी मिला हुआ है।

Byte: कृष्णा गर्ब्याल, रं मामलों के जानकारConclusion:
Last Updated : Nov 14, 2019, 8:07 PM IST
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