पिथौरागढ़: एक पेड़ है जो पहाड़ के लिए नासूर बन गया है. इसकी रोकथाम के लिए पहाड़ पर कई बार आंदोलन भी हुए लेकिन अभी तक न तो सरकार के कानों में जूं रेंगी और न ही वन महकमा नींद से जागा है. हम बात कर रहे है पाइन यानी चीड़ के पेड़ की. एक तरफ जहां चीड़ के जंगल प्राकृतिक असंतुलन को बढ़ावा दे रहे हैं, तो वहीं गर्मियों के मौसम में वनाग्नि को न्यौता भी दे रहे हैं. जंगल में खलनायक के बतौर जाना जाने वाला ये वृक्ष दरअसल ब्रिटिशराज की देन है.
अंग्रेज अपनी व्यवसायिक जरूरतों की पूर्ति के लिए इसे यूरोप से यहां लाए थे. ये पेड़ उतना लाभकारी नहीं है, जिससे ज्यादा इसके नुकसान है. हालांकि चीड़ का अगर व्यवसायिक उपयोग किया जाए तो जंगलों में धधकती आग पर काबू पाने के साथ ही युवाओं को रोजगार भी दिया जा सकता है. मगर जरूरत है सरकारों की मजबूत इच्छा शक्ति की और चीड़ के दोहन के लिए बेहतर नीति बनाने की.
धीरे-धीरे चीड़ का जंगल पूरे पहाड़ को अपनी आगोश में लेते जा रहा है. आलम ये है कि उत्तराखंड में चीड़ को नासूर की शक्ल में देखा जाने लगा है. पर्यावरणविद भी मानते हैं कि चीड़ के पेड़ों की अधिकता से पहाड़ का पर्यावरण खतरे की जद में है. वन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक राज्य में कुल 3 लाख 99 हजार 9 सौ 37 हेक्टेयर वनभूमि चीड़ के जंगलों से घिरी हुई है, जो भविष्य के लिए एक चिंता का विषय बना हुआ है.
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चीड़ का वृक्ष पहाड़ के जल, जंगल और जमीन पर अनायास ही कब्जा जमाए हुए है. चीड़ का जंगल जिस क्षेत्र में होता वहां किसी अन्य प्रजाति के पेड़-पोधों का फलना फूलना संभव नहीं है. चीड़ के पेड़ों से गिरने वाला पिरूल जमीन की उर्वरक शक्ति को नष्ट कर देता है और वहां घास-फूंस तक नहीं उग पाती है. गर्मियों के मौसम में जंगलों में बढ़ रही दावाग्नी का मुख्य कारण भी चीड़ का ये पेड़ ही है. चीड़ की पत्तियां इतनी ज्वलनशील होती है कि कुछ ही क्षणों में जंगलों के जंगल खाक कर देती हैं. यहीं नही, चीड़ के जंगलों की बहुलता के कारण ग्रामीणों को चारे पत्ती के लिए दूर दराज के वनों पर निर्भर रहना पड़ता है.
इतिहास गवाह है कि जंगलों को आग से बचाने के लिए पहाड़वासियों ने अपनी जान तक कुर्बान कर डाली है. चीड़ को रोकथाम के लिए नंदासैण वन आंदोलन जैसे कई महत्वपूर्ण आंदोलन भी समय-समय पर हुए हैं लेकिन आज तक न तो सरकारों ने इस बात की सुध ली और न ही वन महकमे ने. अगर समय रहते कोई कारगर कदम नहीं उठाये गये तो इसकी कीमत पहाड़वासियों को अपने जल, जंगल और जमीन खोकर चुकानी पड़ेगी.
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पहाड़ों में रोजगार के नए अवसर तलाशना
चीड़ के वनों का अगर उचित दोहन किया जाए तो जंगलों की आग से तो मुक्ति मिलेगी ही, साथ ही पहाड़ों में रोजगार के नए मौके भी मिल सकते हैं. चीड़ के तेल में ऐसे तत्व मौजूद हैं, जो सांस और फेफड़ों के रोगों को दूर करते हैं. यही नहीं, अस्थमा, अर्थराइटिस और त्वचा रोगों में भी इसका तेल इस्तेमाल होता है. चीड़ से प्राप्त रेजिन से परफ्यूम, दवाएं और खाद्य पदार्थों को खुशबूदार बनाने में इस्तेमाल किया जाता है. इसके तने से निकलने वाला पदार्थ प्राकृतिक तारपीन होता है, जिसका इस्तेमाल रासायनिक तारपीन बनाने में किया जाता है, जो वार्निश पेंट आदि में इस्तेमाल होता है. चीड़ की पत्तियों को ईंधन और हैंडीक्राफ्ट के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है और डिकम्पोजर के जरिये इसकी पत्तियों की खाद भी बनाई जा सकती है. यही नहीं, इसकी पत्तियों से बिजली निर्माण भी विभिन्न स्वयं सहायता समूहों द्वारा किया जा रहा है.