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उपेक्षा: कभी 'मिनी यूरोप' कहलाने वाला गांव आज झेल रहा पलायन का दंश - त्रिवेंद्र सिंह रावत

उत्तराखंड से पलायन का नाता काफी पुराना है, लेकिन सवाल तब गंभीर हो जाता है जब पलायन सीमांत गांव से हो. क्योंकि, इन गांवों को प्रहरी गांव भी माना जाता है. ऐसा ही एक गांव है चीन और नेपाल बॉर्डर से सटा गर्ब्यांग गांव. जहां से पलायन अवनरत जारी है. आइए आपको मिनी यूरोप कहे जाने गर्ब्यांग गांव की पीड़ा से अवगत कराते हैं...

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गर्ब्यांग गांव
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Published : Sep 20, 2020, 3:41 PM IST

Updated : Sep 20, 2020, 6:50 PM IST

पिथौरागढ़: चीन और नेपाल बॉर्डर से सटा गर्ब्यांग गांव आज भले ही पलायन का दंश झेल रहा हो, लेकिन एक दौर ऐसा भी था, जब इस गांव को मिनी यूरोप यानि छोटा विलायत कहा जाता था. साल 1962 के चीनी हमले से पहले ये गांव इंडो-चाइना ट्रेड का केंद्र भी हुआ करता था, लेकिन आज ये पूरी तरह सुनसान है. आलम ये है कि आधे से ज्यादा परिवार गांव से पलायन कर चुके हैं. जो लोग मजबूरी में यहां बसे हैं, उन्हें भी गांव का धसाव हर वक्त डराता है.

गर्ब्यांग गांव में पलायन का दंश.

पिथौरागढ़ जिले की व्यास घाटी में साढ़े 10 हजार फीट की ऊंचाई पर बसे गर्ब्यांग गांव को काली नदी साल 1960 से अपने आगोश में ले रही है. लगातार हो रहे भू-धसाव के कारण 1976 में यहां के आधे से ज्यादा परिवारों को सितारगंज शिफ्ट किया चुका है. आजादी के सात दशक बाद भी इस गांव में न तो संचार के साधन हैं और न ही बिजली, पानी, स्वास्थ्य सेवा तो महज सपना है.

garbyang village
सीमांत गर्ब्यांग गांव.

ये भी पढ़ेंः उत्तरकाशी: प्रदेश सरकार बना रही नेलांग और जाडुंग गांव को आबाद करने की योजना, ग्रामीणों ने कही ये बातें

तिब्बत व्यापार का केंद्र बिंदु था गर्ब्यांग गांव
लिपुलेख तक सड़क कटने के बाद ये इलाका पहली बार सड़क से जुड़ा है, लेकिन संचार के लिए यहां के लोग आज भी नेपाल पर निर्भर हैं. हालात तो ये है कि एक अदद बात करने के लिए भी इन्हें 6 किलोमीटर का सफर तक कर छियालेख पहुंचना पड़ता है. साल 1962 में हुए चीनी हमले से पहले गर्ब्यांग गांव आर्थिक तौर काफी संपन्न था. तिब्बत के साथ होने वाले व्यापार का गर्बयांग केंद्र बिंदु हुआ करता था. भारत-तिब्बत व्यापार ने इस इलाके को पूरी दुनिया में अलग पहचान दिलाई.

गांव में बचे महज 146 परिवार
ब्रिटिश हुकुमत में इसे मिनी यूरोप का दर्जा हासिल था. साल 1991 में इंडो-चाइना ट्रेड तो फिर से बहाल हो गया. बावजूद इसके 1962 से पहले की खुशहाली यहां वापस नहीं आ पाई. हालांकि, लिपुलेख सड़क कटने के बाद ये उम्मीद जरूर जगी है कि यहां से पलायन कर चुके परिवार घर वापसी करेंगे. फिलहाल, गर्ब्यालों के 400 परिवार देश-दुनिया में फैले हैं, लेकिन गांव में सिर्फ 146 परिवार ही स्थायी तौर पर रहते हैं.

ये भी पढ़ेंः पहाड़ों में दम तोड़ता कुटीर उद्योग, भेड़ पालन से मुंह मोड़ रहा युवा पीढ़ी

कभी लौटेगी सीमांत गांव की रौनक
साल 1882 में छपे एटकिंसन के गजेटियर में भी गर्ब्यांग गांव की समृद्दि और व्यापारिक केंद्र होने का जिक्र किया है. वहीं, स्विट्ज़रलैंड के यात्री आर्नल्ड हाईम और ऑगस्ट गैंसर ने साल 1936 में इस गांव का भ्रमण किया था. गर्ब्यांग गाँव के अपने अनुभवों को उन्होंने अपनी पुस्तक 'द थ्रोन ऑफ़ द गॉड्स: एन अकाउंट ऑफ द फर्स्ट स्विस एक्स्पेडीशन टू द हिमालयाज' में लिखा है, लेकिन आज हालात ये है कि बुनियादी सुविधाओं के अभाव में गांव के लोग न चाहते हुए भी पलायन को मजबूर हैं. चीन और नेपाल से तनाव के बीच उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकारें बॉर्डर की रौनक को वापस लाने के लिए गंभीर कोशिशें करेंगी.

पिथौरागढ़: चीन और नेपाल बॉर्डर से सटा गर्ब्यांग गांव आज भले ही पलायन का दंश झेल रहा हो, लेकिन एक दौर ऐसा भी था, जब इस गांव को मिनी यूरोप यानि छोटा विलायत कहा जाता था. साल 1962 के चीनी हमले से पहले ये गांव इंडो-चाइना ट्रेड का केंद्र भी हुआ करता था, लेकिन आज ये पूरी तरह सुनसान है. आलम ये है कि आधे से ज्यादा परिवार गांव से पलायन कर चुके हैं. जो लोग मजबूरी में यहां बसे हैं, उन्हें भी गांव का धसाव हर वक्त डराता है.

गर्ब्यांग गांव में पलायन का दंश.

पिथौरागढ़ जिले की व्यास घाटी में साढ़े 10 हजार फीट की ऊंचाई पर बसे गर्ब्यांग गांव को काली नदी साल 1960 से अपने आगोश में ले रही है. लगातार हो रहे भू-धसाव के कारण 1976 में यहां के आधे से ज्यादा परिवारों को सितारगंज शिफ्ट किया चुका है. आजादी के सात दशक बाद भी इस गांव में न तो संचार के साधन हैं और न ही बिजली, पानी, स्वास्थ्य सेवा तो महज सपना है.

garbyang village
सीमांत गर्ब्यांग गांव.

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तिब्बत व्यापार का केंद्र बिंदु था गर्ब्यांग गांव
लिपुलेख तक सड़क कटने के बाद ये इलाका पहली बार सड़क से जुड़ा है, लेकिन संचार के लिए यहां के लोग आज भी नेपाल पर निर्भर हैं. हालात तो ये है कि एक अदद बात करने के लिए भी इन्हें 6 किलोमीटर का सफर तक कर छियालेख पहुंचना पड़ता है. साल 1962 में हुए चीनी हमले से पहले गर्ब्यांग गांव आर्थिक तौर काफी संपन्न था. तिब्बत के साथ होने वाले व्यापार का गर्बयांग केंद्र बिंदु हुआ करता था. भारत-तिब्बत व्यापार ने इस इलाके को पूरी दुनिया में अलग पहचान दिलाई.

गांव में बचे महज 146 परिवार
ब्रिटिश हुकुमत में इसे मिनी यूरोप का दर्जा हासिल था. साल 1991 में इंडो-चाइना ट्रेड तो फिर से बहाल हो गया. बावजूद इसके 1962 से पहले की खुशहाली यहां वापस नहीं आ पाई. हालांकि, लिपुलेख सड़क कटने के बाद ये उम्मीद जरूर जगी है कि यहां से पलायन कर चुके परिवार घर वापसी करेंगे. फिलहाल, गर्ब्यालों के 400 परिवार देश-दुनिया में फैले हैं, लेकिन गांव में सिर्फ 146 परिवार ही स्थायी तौर पर रहते हैं.

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कभी लौटेगी सीमांत गांव की रौनक
साल 1882 में छपे एटकिंसन के गजेटियर में भी गर्ब्यांग गांव की समृद्दि और व्यापारिक केंद्र होने का जिक्र किया है. वहीं, स्विट्ज़रलैंड के यात्री आर्नल्ड हाईम और ऑगस्ट गैंसर ने साल 1936 में इस गांव का भ्रमण किया था. गर्ब्यांग गाँव के अपने अनुभवों को उन्होंने अपनी पुस्तक 'द थ्रोन ऑफ़ द गॉड्स: एन अकाउंट ऑफ द फर्स्ट स्विस एक्स्पेडीशन टू द हिमालयाज' में लिखा है, लेकिन आज हालात ये है कि बुनियादी सुविधाओं के अभाव में गांव के लोग न चाहते हुए भी पलायन को मजबूर हैं. चीन और नेपाल से तनाव के बीच उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकारें बॉर्डर की रौनक को वापस लाने के लिए गंभीर कोशिशें करेंगी.

Last Updated : Sep 20, 2020, 6:50 PM IST
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