श्रीनगर: पेशावर कांड की आज 92वीं बरसी है. पेशावर कांड आज ही के दिन 1930 को घटित हुआ था. यही वो दिन था जब दुनिया से एक वीर सैनिक का असली परिचय हुआ था. एक वीर सैनिक ने पेशावर में देश की आजादी के लिये लड़ने वाले निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से इनकार जो कर दिया था. ये वो दौर था जब देश में पूर्ण स्वराज को लेकर आंदोलन चल रहा था. गांधी जी ने 12 मार्च, 1930 को डांडी मार्च शुरू किया था. इस बीच भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी जाने की चर्चाएं भी तेज थीं. पूरे राष्ट्र में इससे उबाल था, चंद्र सिंह गढ़वाली भी इनमें शामिल थे.
प्राचीनकाल से ही उत्तराखंड के लोग पराक्रम, शौर्य और देशभक्ति के लिए जाने जाते हैं. प्रथम विश्व युद्ध में दरबान सिंह और गबर सिंह जैसे वीर सैनिकों ने जहां अपनी वीरता पर तत्कालीन सर्वोच्च सैनिक सम्मान विक्टोरिया क्रास प्राप्त कर विश्वभर में नाम कमाया. वहीं, द्वितीय 'रॉयल' गढ़वाल राइफल्स के हवलदार चंद्र सिंह भंडारी (गढ़वाली) ने 1930 में निहत्थे देशभक्त पठानों पर गोली चलाने से इनकार कर साम्राज्यवादी अंग्रेजों की जड़ें हिलाकर रख दी थीं. इसी दिन उन्होंने अंग्रेजों को संदेश दे दिया था कि वे अब अधिक दिनों तक भारत पर अपना शासन नहीं कर सकेंगे.
पेशावर कांड के नायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल थे. पठानों पर हिंदू सैनिकों द्वारा फायर करवाकर अंग्रेज भारत में हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच फूट डालकर आजादी के आंदोलन को भटकाना चाहते थे. लेकिन वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ने अंग्रेजों की इस चाल को न सिर्फ भांप लिया, बल्कि उस रणनीति को विफल कर वह इतिहास के महान नायक बन गए.
गढ़वाली के जीवन दर्शन पर प्रख्यात लेखक राहुल सांकृत्यायन ने 60 के दशक में लिखी गई पुस्तक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली में इस बात को जोरदार तरीके से उठाया है. इसमें गढ़वाली के हवाले से कहा गया है कि 23 अप्रैल, 1930 को पेशावर में होने वाली पठानों की रैली से पहले अंग्रेजों ने गढ़वाली सैनिकों को इस बात के लिए भड़काने का प्रयास किया था कि मुस्लिम भारत के हिंदुओं पर अत्याचार कर रहे हैं. इसलिए हिंदुओं को बचाने के लिए उन पर गोली चलानी पड़ेगी. अंग्रेजों की चाल को पहले से भांपने के बाद चंद्र सिंह ने चुपके से गढ़वाली सैनिकों से कहा कि हिंदू-मुसलमान के झगड़े की बातें पूरी तरह से गलत हैं.
चंद्र सिंह ने गढ़वाली सैनिकों को बताया कि यह कांग्रेस द्वारा विदेशी माल को बेचने का विरोध है. कांग्रेसी विदेशी माल बेचने वाली दुकानों के बाहर धरना देंगे. जब कांग्रेस देश को आजाद कराने के लिए अंग्रेजों से लड़ाई लड़ रही है, ऐसे में क्या हमें उन पर गोली चलानी चाहिए. उन पर गोली चलाने से अच्छा होगा कि हम खुद को ही गोली मार लें.
अगले दिन 23 अप्रैल को पेशावर के किस्साखानी बाजार में कांग्रेस के जुलूस में हजारों पठान प्रदर्शन कर रहे थे. गढ़वाली सैनिकों ने जुलूस को घेर लिया था. अंग्रेज अफसर ने प्रदर्शन के सामने चिल्लाकर कहा कि तुम लोग भाग जाओ वर्ना गोली से मारे जाओगे, लेकिन पठान जनता अपनी जगह से नहीं हिली.
चंद मिनट बाद ही अंग्रेज कप्तान रिकेल ने आदेश दिया गढ़वाली तीन राउंड फायर. उसके तुरंत बाद ही वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ने जोर से कहा, गढ़वाली सीज फायर. यह शब्द सुनते ही सभी गढ़वाली सैनिकों ने अपनी राइफलें जमीन पर रख दीं. अंग्रेज अफसर ने जब चंद्र सिंह से इस बारे में पूछा तो गढ़वाली ने उनसे कहा कि यह सारे लोग निहत्थे हैं. निहत्थों पर हम गोली कैसे चलाएं. इस घटना ने न सिर्फ देश में सांप्रदायिक सौहार्द का संदेश दिया था, बल्कि गढ़वाली सैनिकों का पूरे देश में एक अलग ही सम्मान बढ़ गया था.
हालांकि, अंग्रेज सैनिकों ने बाद में पठान आंदोलनकारियों पर गोलियां बरसाईं. उससे पहले गढ़वाली सैनिकों से उनके हथियार ले लिये गए. चंद्र सिंह गढ़वाली सहित इन सैनिकों को नौकरी से निकाल दिया गया और उन्हें कड़ी सजा दी गयी लेकिन उन्होंने खुशी-खुशी इसे स्वीकार किया. बैरिस्टर मुकुंदी लाल के प्रयासों से इन सैनिकों को मृत्यु दंड की सजा नहीं मिली लेकिन उन्हें जेल जाना पड़ा था. इस दौरान चन्द्र सिंह गढ़वाली की सारी सम्पत्ति जब्त कर ली गई.
पढ़ें- उत्तराखंड के 'बजरंगी भाईजान' से मिलिए, विदेशों में फंसे भारतीयों के लिए देवदूत से कम नहीं गिरीश पंत
गढ़वाली के बारे में महात्मा गांधी ने कही थी ये बात: गांधी जी ने एक बार कहा था कि अगर उनके पास चंद्र सिंह गढ़वाली जैसे चार आदमी होते तो देश कब का आजाद हो गया होता. चंद्र सिंह गढ़वाली बाद में कम्युनिस्ट हो गये और सिर्फ उनकी इस विचारधारा की वजह से देश ने इस अमर जवान को वह सम्मान नहीं दिया, जिसके वह असली हकदार थे.
1857 के बाद पहला सैनिक विद्रोह था: वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ने 23 अप्रैल 1930 को तो सैनिकों को पठानों पर गोली चलाने से रोक दिया था. अगले दिन करीब 800 गढ़वाली सैनिकों ने अंग्रेजों का हुक्म मानने से इनकार कर दिया. सैनिक अपनी राइफलों को अंग्रेज अफसरों की तरफ करके खड़े हो गए थे. वीर चंद्र सिंह गढ़वाली और अन्य गढ़वाली हवलदारों ने बंदूकें जमा करने को सैनिकों को राजी करा दिया. उन्होंने अंग्रेजों का कोई भी आदेश मानने से इनकार कर दिया. इतनी बड़ी संख्या में सैनिकों के विद्रोह करने से अंग्रेजों की चूलें हिल गई थीं. राइफल जमा करने के बाद सभी सैनिकों को गिरफ्तार कर लिया गया था.
कोटद्वार में जन्मे थे गढ़वाली: पौड़ी जिले के थैलीसैंण गांव में 25 दिसंबर, 1891 में जाथली सिंह भंडारी के घर जन्मे वीर चंद्र सिंह गढ़वाली आजादी के बाद कोटद्वार के ध्रुवपुर में रहने लगे थे. वीर चन्द्र सिंह के पूर्वज चौहान वंश के थे, जो मुरादाबाद में रहते थे लेकिन काफी समय पहले ही वह गढ़वाल की राजधानी चांदपुरगढ़ में आकर बस गये थे और यहां के थोकदारों की सेवा करने लगे थे. माता-पिता की इच्छा के विपरीत वह 1914 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान लैंसडाउन में गढ़वाल राइफल्स में भर्ती हुए.
भारतीय सेना के साथ उन्होंने 1915 में मित्र देशों की तरफ से प्रथम विश्व युद्ध में भी हिस्सा लिया. 1 अगस्त, 1915 में चन्द्र सिंह को अन्य गढ़वाली सैनिकों के साथ अंग्रेजों द्वारा फ्रांस भेज दिया गया, जहां से वे 1 फरवरी 1916 को वापस लैंसडाउन आ गये.
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही 1917 में चन्द्र सिंह ने अंग्रेजों की ओर से मेसोपोटामिया के युद्ध में भाग लिया, जिसमें अंग्रेजों की जीत हुई थी. साल 1918 में बगदाद की लड़ाई में भी हिस्सा लिया. प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो जाने के बाद अंग्रेजों ने कई सैनिकों को निकाला और कइयों का पद कम कर दिया. चन्द्र सिंह को हवलदार से सैनिक बना दिया गया था, जिस कारण इन्होंने सेना को छोड़ने का मन बना लिया. इसी दौरान चन्द्र सिंह महात्मा गांधी के सम्पर्क में आये.
1930 में चन्द्र सिंह गढ़वाली को 14 साल के कारावास के लिये ऐबटाबाद की जेल में भेज दिया गया. 11 साल के कारावास के बाद इन्हें 26 सितम्बर, 1941 को आजाद कर दिया. 8 अगस्त 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में इन्होंने इलाहाबाद में रहकर इस आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई. फिर से 3 तीन साल के लिये गिरफ्तार हुए. 1945 में इन्हें आजाद कर दिया गया. 22 दिसंबर, 1946 में कम्युनिस्टों के सहयोग के कारण चन्द्र सिंह फिर से गढ़वाल में प्रवेश कर सके.
उन्होंने भारत के नामदेव राजा भरत के नाम से उर्तिछा में भरत नगर बसाने का सपना देखा था. पूरे शिवालिक क्षेत्र को मसूरी की तर्ज पर विकसित करने की उन्होंने योजना बनाई थी. गढ़वाली के प्रयासों से सर्वे आफ इंडिया द्वारा इस क्षेत्र को चिह्नित भी करा दिया था, लेकिन यह विडंबना ही है कि उनकी मृत्यु के बाद पूरा मामला ठंडे बस्ते में चला गया. एक अक्तूबर 1979 को दिल्ली के एक अस्पताल में उनका निधन हो गया. साल 1994 में भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया गया.