ETV Bharat / state

उत्तराखंड में बेशकीमती जमीनों को बचाने की जद्दोजहद, हिमाचल की तर्ज पर भू-कानून की मांग तेज - उत्तराखंड की पहाड़ी संस्कृति

उत्तराखंड के पास कोई संकट नहीं है, लेकिन एक ऐसा संकट जरूर इस राज्य में है, जिसे लेकर यहां की जनता आवाज उठाने लगी है. उत्तराखंड के लोग भी अब अपने यहां हिमाचल जैसा सख्त भू-सुधार कानून चाहते हैं. कारण ये है कि उत्तराखंड की बेशकीमती जमीनों पर बाहरी धन्नासेठों का कब्जा हो रहा है. अब उत्तराखंड के लोग अब हिमाचल में लगाई गई धारा 118 की तरह भूमि सुधार कानून की मांग कर रहे हैं

uttarakhand-need-land-reforms-act
उत्तराखंड में बेशकीमती जमीनों की बचाने की जद्दोजहद
author img

By

Published : Jul 3, 2021, 8:01 PM IST

देहरादून/शिमला: अलग राज्य बनने से पहले उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का हिस्सा था. यहां मैदान और पहाड़ के अपने-अपने मसले थे. पहाड़ की जनता अपना अलग राज्य चाहती थी और लंबे संघर्ष के बाद ये सपना पूरा भी हुआ. ये अलग बात है कि उत्तराखंड में सियासी स्थिरता नहीं रही और विकास इस पहाड़ी प्रदेश में रफ्तार नहीं पकड़ पाया.

हालांकि वहां देहरादून, हरिद्वार और रुड़की में उद्योग व अन्य संस्थानों के होने से कई लाभ भी हैं, लेकिन ठेठ पहाड़ी लोग अभी भी विकास को तरस रहे हैं. ऋषिकेश सरीखे आध्यात्मिक नगरों के राज्य उत्तराखंड में देश ही नहीं विदेश से भी योग व अध्यात्म के इच्छुक आते हैं. ऐसे में पहचान को लेकर तो उत्तराखंड के पास कोई संकट नहीं है, लेकिन एक ऐसा संकट जरूर इस राज्य में है, जिसे लेकर यहां की जनता आवाज उठाने लगी है.

उत्तराखंड के लोग भी अब अपने यहां हिमाचल जैसा सख्त भू-सुधार कानून चाहते हैं. कारण ये है कि उत्तराखंड की बेशकीमती जमीनों पर बाहरी लोग बस रहे हैं. धन्नासेठ यहां मनमानी जमीन का चयन कर उसका सौदा करते हैं. यहां ऐसी कोई बंदिश नहीं है कि जमीन खरीदने से पहले कानूनी जटिलताएं पार करनी हैं. हिमाचल में ऐसा नहीं है. हिमाचल में कोई भी बाहरी व्यक्ति जमीन नहीं खरीद सकता. यहां के भूमि सुधार कानून में लैंड सीलिंग एक्ट और धारा-118 के कारण राज्य की भूमि पर धन्नासेठ मनमाना कब्जा नहीं कर पाए हैं.

क्यों चाहिए हिमाचल जैसा कानून

पहचान का संकट सभ्यता का सबसे बड़ा संकट होता है. उत्तराखंड की पहाड़ी संस्कृति भी अपनी पहचान बनाए रखना चाहती है. देश के विभिन्न हिस्सों से आए लोग यदि उत्तराखंड में बेरोट-टोक जमीन खरीद करते रहेंगे तो यहां के सीमांत व छोटे किसान भूमिहीन हो सकते हैं. हिमाचल ने इस संकट को अपने अस्तित्व में आने पर ही पहचान लिया था. प्रदेश निर्माता और पहले मुख्यमंत्री डॉ. वाईएस परमार ने ऐसे कानूनों की नींव रखी कि हिमाचल की भूमि बाहरी लोग न ले पाएं. यहां बाहरी राज्यों के लोग जमीन नहीं खरीद सकते.

यदि किसी को जमीन खरीदनी हो तो उसे भू-सुधार कानून की धारा-118 के तहत सरकार से अनुमति लेनी होती है. यही कारण हैं कि हिमाचल में बाहरी राज्यों के धन्नासेठ या फिर प्रभावशाली लोग न के बराबर जमीन खरीद पाए हैं. प्रियंका वाड्रा जैसे केस न के बराबर हैं. ऐसे प्रभावशाली लोगों को धारा-118 के तहत अनुमति मिलने में खास रुकावट नहीं आती. फिर भी प्रभावशाली से प्रभावशाली व्यक्ति को भी हिमाचल में कृषि योग्य जमीन खरीदने की अनुमति नहीं मिलती.

इंडस्ट्री के लिए चाहते हैं मनमानी जमीन

उत्तराखंड में उद्योग स्थापित करने वाले मनमानी जमीन चाहते हैं. वहां जमीन आवंटन में कोई खास पचड़े नहीं हैं. ऐसे में सरकार और स्थानीय प्रशासन का जमीन लेने वालों पर कोई खास नियंत्रण नहीं होता है. इस मनमानी के कारण कई तरह की समस्याएं पैदा हो रही हैं. उत्तराखंड में अब युवाओं की आवाज हिमाचल जैसे कानून के लिए उठ रही है.

ये भी पढ़ें: पुष्कर सिंह धामी होंगे उत्तराखंड के अगले मुख्यमंत्री, रविवार को लेंगे शपथ

उत्तराखंड के पर्यावरणविद् अनिल जोशी कहते हैं कि यदि उत्तराखंड की पहचान का संकट न होता तो यूपी से अलग होने की क्या जरूरत थी? उनका कहना है कि उत्तराखंड की जलवायु, जंगल, जल और जमीन बेशकीमती है. धन्नासेठ यहां की जमीन खरीद कर यहां अपने स्वार्थ पूरा करना चाहते हैं. यहां की जमीन पर बड़े रिजार्ट बनाकर लाभ कमाना चाहते हैं. हैरानी की बात ये है कि उत्तराखंड में खेती को बहुत महत्व नहीं मिल रहा है. हिमाचल बागवानी में टॉप पर है और बेमौसमी सब्जियों के उत्पादन में भी नाम कमा रहा है. उत्तराखंड में बागवानी और कृषि पर सरकारों ने खास प्रयास नहीं किया.

हिमाचल में गठन के बाद ही लागू हो गए भू-सुधार कानून

हिमाचल को 1971 में पूर्ण राज्य का दर्जा मिला और यहां अगले ही साल भूमि सुधार कानून लागू हो गया. कानून की धारा 118 के तहत कोई भी बाहरी व्यक्ति कृषि की जमीन निजी उपयोग के लिए नहीं खरीद सकता. फिर लैंड सीलिंग एक्ट में कोई भी व्यक्ति 150 बीघा जमीन से अधिक नहीं रख सकता. हिमाचल में बागवानी और खेती के कारण यहां की प्रति व्यक्ति आय देश में टॉप के राज्यों पर है. ये बात अलग है कि उद्योगों के लिए सरकार जमीन देती है.

वरिष्ठ पत्रकार अर्चना फुल्ल कहती हैं कि हिमाचल ने अपनी जमीन बचाने के लिए शुरू से ही काम किया है. धारा-118 के साथ छेड़छाड़ की कोई भी राजनीतिक दल सोच भी नहीं सकता. यहां की जनता जागरुक है और भूमि सुधार कानून के साथ कोई भी छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं करती. वहीं, उत्तराखंड में ग्रामीण इलाकों में साधनहीन लोग धन के अभाव में अपनी जमीन बेच देते हैं. फिर वे लैंडलेस हो जाते हैं.

सख्त भूमि कानून के अभाव में उत्तराखंड के जंगल भी खतरे में हैं. पलायन का कारण भी उत्तराखंड में यही रहा कि खेती से वहां रोजगार के खास प्रयास नहीं हुए. उत्तराखंड में इन्हीं कारणों से गांव बचाओ यात्रा जैसे आंदोलन भी हो रहे हैं.

देहरादून/शिमला: अलग राज्य बनने से पहले उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का हिस्सा था. यहां मैदान और पहाड़ के अपने-अपने मसले थे. पहाड़ की जनता अपना अलग राज्य चाहती थी और लंबे संघर्ष के बाद ये सपना पूरा भी हुआ. ये अलग बात है कि उत्तराखंड में सियासी स्थिरता नहीं रही और विकास इस पहाड़ी प्रदेश में रफ्तार नहीं पकड़ पाया.

हालांकि वहां देहरादून, हरिद्वार और रुड़की में उद्योग व अन्य संस्थानों के होने से कई लाभ भी हैं, लेकिन ठेठ पहाड़ी लोग अभी भी विकास को तरस रहे हैं. ऋषिकेश सरीखे आध्यात्मिक नगरों के राज्य उत्तराखंड में देश ही नहीं विदेश से भी योग व अध्यात्म के इच्छुक आते हैं. ऐसे में पहचान को लेकर तो उत्तराखंड के पास कोई संकट नहीं है, लेकिन एक ऐसा संकट जरूर इस राज्य में है, जिसे लेकर यहां की जनता आवाज उठाने लगी है.

उत्तराखंड के लोग भी अब अपने यहां हिमाचल जैसा सख्त भू-सुधार कानून चाहते हैं. कारण ये है कि उत्तराखंड की बेशकीमती जमीनों पर बाहरी लोग बस रहे हैं. धन्नासेठ यहां मनमानी जमीन का चयन कर उसका सौदा करते हैं. यहां ऐसी कोई बंदिश नहीं है कि जमीन खरीदने से पहले कानूनी जटिलताएं पार करनी हैं. हिमाचल में ऐसा नहीं है. हिमाचल में कोई भी बाहरी व्यक्ति जमीन नहीं खरीद सकता. यहां के भूमि सुधार कानून में लैंड सीलिंग एक्ट और धारा-118 के कारण राज्य की भूमि पर धन्नासेठ मनमाना कब्जा नहीं कर पाए हैं.

क्यों चाहिए हिमाचल जैसा कानून

पहचान का संकट सभ्यता का सबसे बड़ा संकट होता है. उत्तराखंड की पहाड़ी संस्कृति भी अपनी पहचान बनाए रखना चाहती है. देश के विभिन्न हिस्सों से आए लोग यदि उत्तराखंड में बेरोट-टोक जमीन खरीद करते रहेंगे तो यहां के सीमांत व छोटे किसान भूमिहीन हो सकते हैं. हिमाचल ने इस संकट को अपने अस्तित्व में आने पर ही पहचान लिया था. प्रदेश निर्माता और पहले मुख्यमंत्री डॉ. वाईएस परमार ने ऐसे कानूनों की नींव रखी कि हिमाचल की भूमि बाहरी लोग न ले पाएं. यहां बाहरी राज्यों के लोग जमीन नहीं खरीद सकते.

यदि किसी को जमीन खरीदनी हो तो उसे भू-सुधार कानून की धारा-118 के तहत सरकार से अनुमति लेनी होती है. यही कारण हैं कि हिमाचल में बाहरी राज्यों के धन्नासेठ या फिर प्रभावशाली लोग न के बराबर जमीन खरीद पाए हैं. प्रियंका वाड्रा जैसे केस न के बराबर हैं. ऐसे प्रभावशाली लोगों को धारा-118 के तहत अनुमति मिलने में खास रुकावट नहीं आती. फिर भी प्रभावशाली से प्रभावशाली व्यक्ति को भी हिमाचल में कृषि योग्य जमीन खरीदने की अनुमति नहीं मिलती.

इंडस्ट्री के लिए चाहते हैं मनमानी जमीन

उत्तराखंड में उद्योग स्थापित करने वाले मनमानी जमीन चाहते हैं. वहां जमीन आवंटन में कोई खास पचड़े नहीं हैं. ऐसे में सरकार और स्थानीय प्रशासन का जमीन लेने वालों पर कोई खास नियंत्रण नहीं होता है. इस मनमानी के कारण कई तरह की समस्याएं पैदा हो रही हैं. उत्तराखंड में अब युवाओं की आवाज हिमाचल जैसे कानून के लिए उठ रही है.

ये भी पढ़ें: पुष्कर सिंह धामी होंगे उत्तराखंड के अगले मुख्यमंत्री, रविवार को लेंगे शपथ

उत्तराखंड के पर्यावरणविद् अनिल जोशी कहते हैं कि यदि उत्तराखंड की पहचान का संकट न होता तो यूपी से अलग होने की क्या जरूरत थी? उनका कहना है कि उत्तराखंड की जलवायु, जंगल, जल और जमीन बेशकीमती है. धन्नासेठ यहां की जमीन खरीद कर यहां अपने स्वार्थ पूरा करना चाहते हैं. यहां की जमीन पर बड़े रिजार्ट बनाकर लाभ कमाना चाहते हैं. हैरानी की बात ये है कि उत्तराखंड में खेती को बहुत महत्व नहीं मिल रहा है. हिमाचल बागवानी में टॉप पर है और बेमौसमी सब्जियों के उत्पादन में भी नाम कमा रहा है. उत्तराखंड में बागवानी और कृषि पर सरकारों ने खास प्रयास नहीं किया.

हिमाचल में गठन के बाद ही लागू हो गए भू-सुधार कानून

हिमाचल को 1971 में पूर्ण राज्य का दर्जा मिला और यहां अगले ही साल भूमि सुधार कानून लागू हो गया. कानून की धारा 118 के तहत कोई भी बाहरी व्यक्ति कृषि की जमीन निजी उपयोग के लिए नहीं खरीद सकता. फिर लैंड सीलिंग एक्ट में कोई भी व्यक्ति 150 बीघा जमीन से अधिक नहीं रख सकता. हिमाचल में बागवानी और खेती के कारण यहां की प्रति व्यक्ति आय देश में टॉप के राज्यों पर है. ये बात अलग है कि उद्योगों के लिए सरकार जमीन देती है.

वरिष्ठ पत्रकार अर्चना फुल्ल कहती हैं कि हिमाचल ने अपनी जमीन बचाने के लिए शुरू से ही काम किया है. धारा-118 के साथ छेड़छाड़ की कोई भी राजनीतिक दल सोच भी नहीं सकता. यहां की जनता जागरुक है और भूमि सुधार कानून के साथ कोई भी छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं करती. वहीं, उत्तराखंड में ग्रामीण इलाकों में साधनहीन लोग धन के अभाव में अपनी जमीन बेच देते हैं. फिर वे लैंडलेस हो जाते हैं.

सख्त भूमि कानून के अभाव में उत्तराखंड के जंगल भी खतरे में हैं. पलायन का कारण भी उत्तराखंड में यही रहा कि खेती से वहां रोजगार के खास प्रयास नहीं हुए. उत्तराखंड में इन्हीं कारणों से गांव बचाओ यात्रा जैसे आंदोलन भी हो रहे हैं.

ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.