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Cloud Burst Threat: उत्तराखंड के एक हजार गांवों पर मंडरा रहा खतरा, अर्ली वार्निंग सिस्टम 'लापता'!

उत्तराखंड में बाढ़ और बादल फटने की घटनाएं आम बात हैं. राज्य सरकार भी इन घटनाओं से निपटने के लिए लगातार कोशिशों में लगी है. इसके लिए अर्ली वार्निंग सिस्टम को तैयार किया जा रहा है. जिससे इस तरह की घटनाओं की जानकारी पहले से ही मिल सके, जिससे खतरे को कम किया जा सके.

Cloud Burst Threat In Uttarakhand
खतरे में उत्तराखंड के हजार से ज्यादा गांव
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Published : Feb 2, 2023, 3:20 PM IST

देहरादून: उत्तराखंड बाढ़ और बादल फटने की घटनाओं का हमेशा से ही गवाह रहा है. खासतौर पर पिछले 10 से 15 सालों में ऐसी घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं. अध्ययन बताता है कि राज्य के 1093 गांव बाढ़ और क्लाउड बर्स्ट के इन्हीं खतरों के लिए संवेदनशील रूप में चिन्हित भी किये गए हैं. ये ऐसे क्षेत्र है जो विशेष रूप से पहाड़ों की तलहटी और नदी या जल स्त्रोतों के करीब हैं.

प्रदेश में पिछले कुछ सालों के दौरान बादल फटने की घटनाओं और फिर बाढ़ के खतरों को लोगों ने काफी करीब से महसूस किया है. इसकी बड़ी वजह क्लाउड बर्स्ट की घटनाएं हैं. इससे न केवल पहाड़ी जनपदों बल्कि देहरादून समेत कुछ मैदानी जिलों में भी आफत आई है. एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले 10 सालों में 4 हजार से ज्यादा लोग अकेले उत्तराखंड में जान गंवा चुके हैं. 2013 की केदारनाथ आपदा जल प्रलय की सबसे भीषण आपदाओं में शुमार है. सबसे ज्यादा नुकसान नदियों या जल स्त्रोतों के पास रहने वालों लोगों को हुआ है. आपदा प्रबंधन समेत वैज्ञानिकों की टीम ने इन्हीं परिस्थितियों पर अध्ययन के बाद ये पाया है कि राज्य में 1093 गांव बाढ़ और बादल फटने की घटनाओं के लिए बेहद संवेदनशील हैं.

Cloud Burst Threat In Uttarakhand
ऐसे फटते हैं बादल

पढ़ें- उत्तराखंड में बढ़ रही मल्टी क्लाउड बर्स्ट की घटनाएं, जानें कारण

उत्तराखंड आपदा के लिहाज से बेहद संवेदनशील राज्य रहा है. खासतौर पर मानसून सीजन में तो राज्य पर मुसीबतों का पहाड़ टूटता रहा है. इन्हीं स्थितियों को समझते हुए नई तकनीक और एहतियाती कदम उठाकर आपदा के दौरान नुकसान कम करने की कोशिश की जाती रही है. अध्ययन के बाद सरकार भी अर्ली वार्निंग सिस्टम को तैयार कर रही है, ताकि नुकसान को कम किया जा सके. हालांकि इसकी रफ्तार काफी धीमी नज़र आती है. ये स्थिति तब है जब उत्तराखंड में ऐसी घटनाओं से बेहद ज्यादा नुकसान होता रहा है, लेकिन अब भी सिस्टम किसी नए सिस्टम की तलाश में ही जुटा है.

पढ़ें- उत्तराखंड में बादल फटने की 90 फीसदी खबरें झूठी, वैज्ञानिकों ने कई सवालों से उठाया पर्दा

उत्तराखंड में औसत सामान्य बारिश हिमालयी क्षेत्र में नेपाल, हिमाचल, जम्मू कश्मीर से ज्यादा होती है. इतना ही नहीं पड़ोसी राज्यों में पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश से भी औसतन मानसून में बरसात अधिक रहती है. जाहिर है कि ऐसी स्थिति में परेशानियां भी बाकी राज्यों से ज्यादा ही हैं. दूसरी तरफ पहाड़ी जिले जो कच्ची मिट्टी के पहाड़ के रूप में है. वहां इसका प्रभाव लैंडस्लाइड के रूप में पड़ता है. उधर बादल फटने की घटना पहाड़ की तलहटी पर होती है, जहां नदी या जल स्त्रोत भारी बारिश के पानी को बाढ़ की शक्ल दे देते हैं, जिससे तबाही मचती है.

उत्तराखंड मौसम विभाग यूं तो हमेशा बारिश और क्लाउड बर्स्ट जैसी घटनाओं पर नजर रखता है, लेकिन पिछले 3 से 4 सालों में नई तकनीक और टावर उपलब्ध होने के कारण उत्तराखंड मौसम विज्ञान केंद्र ज्यादा बारीकी से इस पर नजर रख पा रहा है. मौसम विभाग के ही नए रिकॉर्ड बताते हैं कि बादल फटने की घटनाएं एक रूप में काफी ज्यादा रही है. नैनीताल, चंपावत, देहरादून और पौड़ी में बादल फटने के ज्यादा मामले रिकॉर्ड हुए हैं. हालांकि पिथौरागढ़ और चमोली जिले भी इन घटनाओं से अछूते नहीं रहे हैं.

पढ़ें- Uttarakhand Rainfall: जनवरी महीने में मात्र इतनी हुई बारिश, बर्फबारी में झूमे बच्चे और महिलाएं

ऐसे फटते हैं बादल: पर्वतीय क्षेत्रों में बादल फटने या अत्याधिक बारिश की घटनाएं सबसे ज्यादा होती हैं. देहरादून के मौसम वैज्ञानिकों के मुताबिक जब एक जगह पर अचानक एक साथ भारी बारिश हो जाए तो उसे बादल फटना कहते हैं. आम आदमी के लिए बादल फटना वैसा ही है, जैसा किसी पानी भरे गुब्बारे को अचानक फोड़ दिया जाए. वैज्ञानिकों के मुताबिक बादल फटने की घटना तब होती है. जब काफी ज्यादा नमी वाले बादल एक जगह पर रुक जाते हैं. वहां मौजूद पानी की बूंदें आपस में मिल जाती हैं. बूंदों के भार से बादल का घनत्व बढ़ जाता है. फिर अचानक भारी बारिश शुरू हो जाती है.

बादल फटने पर 100 मिमी प्रति घंटे की रफ्तार से बारिश हो सकती है. पानी से भरे बादल पहाड़ी इलाकों में फंस जाते हैं. पहाड़ों की ऊंचाई की वजह से बादल आगे नहीं बढ़ पाते. फिर अचानक एक ही स्थान पर तेज बारिश होने लगती है. चंद सेकेंड में 2 सेंटीमीटर से ज्यादा बारिश हो जाती है. पहाड़ों पर अमूमन 15 किमी की ऊंचाई पर बादल फटते हैं. पहाड़ों पर बादल फटने से इतनी तेज बारिश होती है, जो सैलाब बन जाती है. हिमालयी क्षेत्रों में बादल फटने के बाद विनाशलीला इसलिए भी ज्यादा होती है कि अधिकतर हिमालय अभी कच्चा पहाड़ है.

पढ़ें- Kedarnath Dham Snowfall: बर्फ के आगोश में बाबा केदार का धाम, चकराता में निखरी खूबसूरती

उत्तराखंड में ओवरआल बारिश तो ज्यादा होती ही है, लेकिन इसके साथ कम समय मे ज्यादा बारिश का आकलन भी यहां साल दर साल से किया जा रहा है. वैसे 10 सेंटीमीटर प्रति घंटा या 100 मिलीमीटर प्रतिघंटा बारिश होने पर बादल फटना माना जाता है, जो उत्तराखंड अक्सर कई जिलों और क्षेत्रों में होता रहा है. लेकिन पहाड़ी जनपदों में 3 से 5 सेंटीमीटर की प्रतिघंटा बारिश भी तबाही ला देती है. इसका स्वरूप भी बदल फटने जैसा ही नजर आता है, इसकी वजह पहाड़ों पर लैंडस्लाइड का बेहद ज्यादा होना है. जिससे 10 सेंटीमीटर से कम बारिश में ही तबाही का मंजर काफी ज्यादा होता है, इससे खतरा भी ज्यादा रहता है.

देहरादून: उत्तराखंड बाढ़ और बादल फटने की घटनाओं का हमेशा से ही गवाह रहा है. खासतौर पर पिछले 10 से 15 सालों में ऐसी घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं. अध्ययन बताता है कि राज्य के 1093 गांव बाढ़ और क्लाउड बर्स्ट के इन्हीं खतरों के लिए संवेदनशील रूप में चिन्हित भी किये गए हैं. ये ऐसे क्षेत्र है जो विशेष रूप से पहाड़ों की तलहटी और नदी या जल स्त्रोतों के करीब हैं.

प्रदेश में पिछले कुछ सालों के दौरान बादल फटने की घटनाओं और फिर बाढ़ के खतरों को लोगों ने काफी करीब से महसूस किया है. इसकी बड़ी वजह क्लाउड बर्स्ट की घटनाएं हैं. इससे न केवल पहाड़ी जनपदों बल्कि देहरादून समेत कुछ मैदानी जिलों में भी आफत आई है. एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले 10 सालों में 4 हजार से ज्यादा लोग अकेले उत्तराखंड में जान गंवा चुके हैं. 2013 की केदारनाथ आपदा जल प्रलय की सबसे भीषण आपदाओं में शुमार है. सबसे ज्यादा नुकसान नदियों या जल स्त्रोतों के पास रहने वालों लोगों को हुआ है. आपदा प्रबंधन समेत वैज्ञानिकों की टीम ने इन्हीं परिस्थितियों पर अध्ययन के बाद ये पाया है कि राज्य में 1093 गांव बाढ़ और बादल फटने की घटनाओं के लिए बेहद संवेदनशील हैं.

Cloud Burst Threat In Uttarakhand
ऐसे फटते हैं बादल

पढ़ें- उत्तराखंड में बढ़ रही मल्टी क्लाउड बर्स्ट की घटनाएं, जानें कारण

उत्तराखंड आपदा के लिहाज से बेहद संवेदनशील राज्य रहा है. खासतौर पर मानसून सीजन में तो राज्य पर मुसीबतों का पहाड़ टूटता रहा है. इन्हीं स्थितियों को समझते हुए नई तकनीक और एहतियाती कदम उठाकर आपदा के दौरान नुकसान कम करने की कोशिश की जाती रही है. अध्ययन के बाद सरकार भी अर्ली वार्निंग सिस्टम को तैयार कर रही है, ताकि नुकसान को कम किया जा सके. हालांकि इसकी रफ्तार काफी धीमी नज़र आती है. ये स्थिति तब है जब उत्तराखंड में ऐसी घटनाओं से बेहद ज्यादा नुकसान होता रहा है, लेकिन अब भी सिस्टम किसी नए सिस्टम की तलाश में ही जुटा है.

पढ़ें- उत्तराखंड में बादल फटने की 90 फीसदी खबरें झूठी, वैज्ञानिकों ने कई सवालों से उठाया पर्दा

उत्तराखंड में औसत सामान्य बारिश हिमालयी क्षेत्र में नेपाल, हिमाचल, जम्मू कश्मीर से ज्यादा होती है. इतना ही नहीं पड़ोसी राज्यों में पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश से भी औसतन मानसून में बरसात अधिक रहती है. जाहिर है कि ऐसी स्थिति में परेशानियां भी बाकी राज्यों से ज्यादा ही हैं. दूसरी तरफ पहाड़ी जिले जो कच्ची मिट्टी के पहाड़ के रूप में है. वहां इसका प्रभाव लैंडस्लाइड के रूप में पड़ता है. उधर बादल फटने की घटना पहाड़ की तलहटी पर होती है, जहां नदी या जल स्त्रोत भारी बारिश के पानी को बाढ़ की शक्ल दे देते हैं, जिससे तबाही मचती है.

उत्तराखंड मौसम विभाग यूं तो हमेशा बारिश और क्लाउड बर्स्ट जैसी घटनाओं पर नजर रखता है, लेकिन पिछले 3 से 4 सालों में नई तकनीक और टावर उपलब्ध होने के कारण उत्तराखंड मौसम विज्ञान केंद्र ज्यादा बारीकी से इस पर नजर रख पा रहा है. मौसम विभाग के ही नए रिकॉर्ड बताते हैं कि बादल फटने की घटनाएं एक रूप में काफी ज्यादा रही है. नैनीताल, चंपावत, देहरादून और पौड़ी में बादल फटने के ज्यादा मामले रिकॉर्ड हुए हैं. हालांकि पिथौरागढ़ और चमोली जिले भी इन घटनाओं से अछूते नहीं रहे हैं.

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ऐसे फटते हैं बादल: पर्वतीय क्षेत्रों में बादल फटने या अत्याधिक बारिश की घटनाएं सबसे ज्यादा होती हैं. देहरादून के मौसम वैज्ञानिकों के मुताबिक जब एक जगह पर अचानक एक साथ भारी बारिश हो जाए तो उसे बादल फटना कहते हैं. आम आदमी के लिए बादल फटना वैसा ही है, जैसा किसी पानी भरे गुब्बारे को अचानक फोड़ दिया जाए. वैज्ञानिकों के मुताबिक बादल फटने की घटना तब होती है. जब काफी ज्यादा नमी वाले बादल एक जगह पर रुक जाते हैं. वहां मौजूद पानी की बूंदें आपस में मिल जाती हैं. बूंदों के भार से बादल का घनत्व बढ़ जाता है. फिर अचानक भारी बारिश शुरू हो जाती है.

बादल फटने पर 100 मिमी प्रति घंटे की रफ्तार से बारिश हो सकती है. पानी से भरे बादल पहाड़ी इलाकों में फंस जाते हैं. पहाड़ों की ऊंचाई की वजह से बादल आगे नहीं बढ़ पाते. फिर अचानक एक ही स्थान पर तेज बारिश होने लगती है. चंद सेकेंड में 2 सेंटीमीटर से ज्यादा बारिश हो जाती है. पहाड़ों पर अमूमन 15 किमी की ऊंचाई पर बादल फटते हैं. पहाड़ों पर बादल फटने से इतनी तेज बारिश होती है, जो सैलाब बन जाती है. हिमालयी क्षेत्रों में बादल फटने के बाद विनाशलीला इसलिए भी ज्यादा होती है कि अधिकतर हिमालय अभी कच्चा पहाड़ है.

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उत्तराखंड में ओवरआल बारिश तो ज्यादा होती ही है, लेकिन इसके साथ कम समय मे ज्यादा बारिश का आकलन भी यहां साल दर साल से किया जा रहा है. वैसे 10 सेंटीमीटर प्रति घंटा या 100 मिलीमीटर प्रतिघंटा बारिश होने पर बादल फटना माना जाता है, जो उत्तराखंड अक्सर कई जिलों और क्षेत्रों में होता रहा है. लेकिन पहाड़ी जनपदों में 3 से 5 सेंटीमीटर की प्रतिघंटा बारिश भी तबाही ला देती है. इसका स्वरूप भी बदल फटने जैसा ही नजर आता है, इसकी वजह पहाड़ों पर लैंडस्लाइड का बेहद ज्यादा होना है. जिससे 10 सेंटीमीटर से कम बारिश में ही तबाही का मंजर काफी ज्यादा होता है, इससे खतरा भी ज्यादा रहता है.

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