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चिंताजनक! 'दीमक' बना पलायन, 2026 तक और कम हो जाएंगी पहाड़ों पर विधानसभाओं की संख्या

प्रदेश में पहाड़ों तक विकास न पहुंचना पहले पलायन की वजह बना और अब पलायन की वजह से विकास पहाड़ों तक नहीं पहुंच पाएगा. ऐसा इसलिए क्योकि बढ़ रहे पलायन के कारण अब साल 2026 में पहाड़ की और भी कई विधानसभा सीटें कम हो सकती हैं.

2026 तक कम हो सकती हैं विधानसभा सीटें.
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Published : Jul 15, 2019, 12:11 PM IST

देहरादून: उत्तराखंड सरकार की तमाम कोशिशों के बाद भी पलायन रुकने का नाम नहीं ले रहा है. पलायन के चलते कई जिले प्रतिनिधित्व के खतरे तक पहुंच गए हैं. राज्य में साल 2007 में परिसीमन आयोग की सिफारिश पर 6 विधानसभाएं पहाड़ी जिलों से कम हो गई थीं. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर ऐसे ही पलायन चलता रहा तो साल 2026 तक पहाड़ की कई विधानसभा सीटें कम हो सकती हैं.

2026 तक कम हो सकती हैं विधानसभा सीटें.

पहले पहाड़ों तक विकास न पहुंचना पलायन की वजह बना और अब पलायन की वजह से विकास पहाड़ों तक नहीं पहुंच पा रहा है. पहाड़ों पर लगातार कम हो रही जनसंख्या के कारण सरकारी योजनाएं पहाड़ों तक नहीं पहुंच पा रही हैं, जिस कारण पहाड़ों पर विधानसभाओं की संख्या भी कम हो रही है, जिससे यहां बजट का कम होना भी लाजमी है.

साल 2007 से पहले प्रदेश में पहाड़ी विधानसभाओं का प्रतिनिधित्व विधानसभा सदन में 40 था, लेकिन साल 2007 के बाद विधानसभा में पहाड़ से आने वाले विधायकों की संख्या घटकर 36 रह गई. परिसीमन आयोग ने पहाड़ पर कम हो रही जनसंख्या के आधार पर सीटों को कम करने की सिफारिश की थी, जिसकी उत्तराखंड के विधायकों ने विरोध करने की हिम्मत तक नहीं जुटाई.

ये भी पढ़ें: सीएम के विधानसभा क्षेत्र के इस गांव से प्रधान ही कर गया पलायन, बुजुर्ग 'आंखें' कर रहीं रखवाली

कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय बताते हैं कि परिसीमन आयोग ने प्रदेश में 10 से 16 पहाड़ी विधानसभाओं को खत्म कर मैदानी जिलों में जोड़ने की तैयारी की थी, लेकिन आयोग के इस कदम का विरोध होने के बाद 6 सीटें पहाड़ी जिलों की कम कर दी गईं.

पलायन आयोग रिपोर्ट के अनुसार-

  • साल 2001 में करीब 950 गांव खाली हो गए थे.
  • साल 2019 आते-आते यह आंकड़ा अब 2000 गांवों के पास पहुंच गया है.
  • 13 जिलों वाले प्रदेश में 9 जिले पहाड़ी हैं, लेकिन यहां करीब 30 प्रतिशत जनसंख्या ही पहाड़ों पर निवास करती है.
  • मैदानी जिलों की विधानसभाओं की संख्या पहाड़ी जिलों की विधानसभाओं से ज्यादा हो गई.
  • साल 2026 में एक बार फिर परिसीमन होना है, ऐसे में पहाड़ों की कई सीटें और घटने की संभावना है, जो चिंता का विषय बना हुआ है.
  • इस पलायन के कारण 2 सीटें पौड़ी, एक सीट अल्मोड़ा, एक सीट बागेश्वर, एक सीट चमोली और एक सीट पिथौरागढ़ जिले की कम की गई थीं.

ये भी पढ़ें: आ अब लौटें: उजड़े गांव की ये है कहानी, बच्चों की राह देखते-देखते पथरा गईं बुजुर्ग आंखें

पलायन आयोग की रिपोर्ट से यह साफ है कि वर्तमान में पौड़ी और अल्मोड़ा जिले में बेहद तेजी से पलायन हो रहा है. यही स्थिति राज्य के दूसरे जिलों की भी बनी हुई है. ऐसे में यह तय है कि 2026 में यदि परिसीमन होता है तो पहाड़ की कई दूसरी सीटें भी कम हो जाएंगी. राज्य आंदोलनकारी प्रदीप कुकरेती बताते हैं कि यदि पहाड़ों की सीटें कम होती हैं तो अलग राज्य की अवधारणा ही खत्म हो जाएगी.

परिसीमन के दौरान जहां नागालैंड, असम, अरुणाचल, मणिपुर और झारखंड में इसका विरोध कर परिसीमन को नहीं होने दिया गया. वहीं, उत्तराखंड में राजनेता मौन रहे और इसका नतीजा यह हुआ कि पहाड़ी जिलों में परिसीमन के बाद सीटें कम हो गईं. पलायन के कारण पहाड़ों से लगातार जनसंख्या कम हो रही है, ऐसे में पहाड़ तक विकास कैसे पहुंचेगा? और अगर पहुंचेगा भी तो किसके लिए? यह बड़ा सवाल है.

आ अब लौटें

गौर हो कि पहाड़ों की इस सबसे बड़ी समस्या को देखते हुये ईटीवी भारत ने पलायन के खिलाफ एक मुहिम शुरू की है. 'आ अब लौटें' मुहिम के जरिये उन गांवों की समस्याओं को सामने लाया जा रहा है जो अब पलायन के कारण खाली हो चुके हैं या खाली होने की कगार पर हैं. सरकार तक उन गांवों की समस्याओं का पहुंचाया जा रहा है. अबतक इस मुहिम को कई बॉलीवुड सितारों का भी साथ मिल चुका है, वहीं विदेश में रह रहे पहाड़ी लोग भी इस मुहिम के जरिये अपने गांव तक जुड़ रहे हैं.

देहरादून: उत्तराखंड सरकार की तमाम कोशिशों के बाद भी पलायन रुकने का नाम नहीं ले रहा है. पलायन के चलते कई जिले प्रतिनिधित्व के खतरे तक पहुंच गए हैं. राज्य में साल 2007 में परिसीमन आयोग की सिफारिश पर 6 विधानसभाएं पहाड़ी जिलों से कम हो गई थीं. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर ऐसे ही पलायन चलता रहा तो साल 2026 तक पहाड़ की कई विधानसभा सीटें कम हो सकती हैं.

2026 तक कम हो सकती हैं विधानसभा सीटें.

पहले पहाड़ों तक विकास न पहुंचना पलायन की वजह बना और अब पलायन की वजह से विकास पहाड़ों तक नहीं पहुंच पा रहा है. पहाड़ों पर लगातार कम हो रही जनसंख्या के कारण सरकारी योजनाएं पहाड़ों तक नहीं पहुंच पा रही हैं, जिस कारण पहाड़ों पर विधानसभाओं की संख्या भी कम हो रही है, जिससे यहां बजट का कम होना भी लाजमी है.

साल 2007 से पहले प्रदेश में पहाड़ी विधानसभाओं का प्रतिनिधित्व विधानसभा सदन में 40 था, लेकिन साल 2007 के बाद विधानसभा में पहाड़ से आने वाले विधायकों की संख्या घटकर 36 रह गई. परिसीमन आयोग ने पहाड़ पर कम हो रही जनसंख्या के आधार पर सीटों को कम करने की सिफारिश की थी, जिसकी उत्तराखंड के विधायकों ने विरोध करने की हिम्मत तक नहीं जुटाई.

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कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय बताते हैं कि परिसीमन आयोग ने प्रदेश में 10 से 16 पहाड़ी विधानसभाओं को खत्म कर मैदानी जिलों में जोड़ने की तैयारी की थी, लेकिन आयोग के इस कदम का विरोध होने के बाद 6 सीटें पहाड़ी जिलों की कम कर दी गईं.

पलायन आयोग रिपोर्ट के अनुसार-

  • साल 2001 में करीब 950 गांव खाली हो गए थे.
  • साल 2019 आते-आते यह आंकड़ा अब 2000 गांवों के पास पहुंच गया है.
  • 13 जिलों वाले प्रदेश में 9 जिले पहाड़ी हैं, लेकिन यहां करीब 30 प्रतिशत जनसंख्या ही पहाड़ों पर निवास करती है.
  • मैदानी जिलों की विधानसभाओं की संख्या पहाड़ी जिलों की विधानसभाओं से ज्यादा हो गई.
  • साल 2026 में एक बार फिर परिसीमन होना है, ऐसे में पहाड़ों की कई सीटें और घटने की संभावना है, जो चिंता का विषय बना हुआ है.
  • इस पलायन के कारण 2 सीटें पौड़ी, एक सीट अल्मोड़ा, एक सीट बागेश्वर, एक सीट चमोली और एक सीट पिथौरागढ़ जिले की कम की गई थीं.

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पलायन आयोग की रिपोर्ट से यह साफ है कि वर्तमान में पौड़ी और अल्मोड़ा जिले में बेहद तेजी से पलायन हो रहा है. यही स्थिति राज्य के दूसरे जिलों की भी बनी हुई है. ऐसे में यह तय है कि 2026 में यदि परिसीमन होता है तो पहाड़ की कई दूसरी सीटें भी कम हो जाएंगी. राज्य आंदोलनकारी प्रदीप कुकरेती बताते हैं कि यदि पहाड़ों की सीटें कम होती हैं तो अलग राज्य की अवधारणा ही खत्म हो जाएगी.

परिसीमन के दौरान जहां नागालैंड, असम, अरुणाचल, मणिपुर और झारखंड में इसका विरोध कर परिसीमन को नहीं होने दिया गया. वहीं, उत्तराखंड में राजनेता मौन रहे और इसका नतीजा यह हुआ कि पहाड़ी जिलों में परिसीमन के बाद सीटें कम हो गईं. पलायन के कारण पहाड़ों से लगातार जनसंख्या कम हो रही है, ऐसे में पहाड़ तक विकास कैसे पहुंचेगा? और अगर पहुंचेगा भी तो किसके लिए? यह बड़ा सवाल है.

आ अब लौटें

गौर हो कि पहाड़ों की इस सबसे बड़ी समस्या को देखते हुये ईटीवी भारत ने पलायन के खिलाफ एक मुहिम शुरू की है. 'आ अब लौटें' मुहिम के जरिये उन गांवों की समस्याओं को सामने लाया जा रहा है जो अब पलायन के कारण खाली हो चुके हैं या खाली होने की कगार पर हैं. सरकार तक उन गांवों की समस्याओं का पहुंचाया जा रहा है. अबतक इस मुहिम को कई बॉलीवुड सितारों का भी साथ मिल चुका है, वहीं विदेश में रह रहे पहाड़ी लोग भी इस मुहिम के जरिये अपने गांव तक जुड़ रहे हैं.

Intro:पलायन पर स्पेशल रिपोर्ट.....

summary- उत्तराखंड में पलायन से कई जिले प्रतिनिधित्व के खतरे तक पहुंच गए हैं... राज्य में साल 2007 में परिसीमन आयोग की सिफारिश पर 6 विधानसभाये पहाड़ी जिलों से कम हो गयी थी जबकि बढ़ रहे पलायन के कारण अब साल 2026 में पहाड़ की कई सीटें कम हो सकती है।

उत्तराखंड में पहाड़ों तक विकास न पहुंचना पहले पलायन की वजह बना और अब पलायन की वजह से विकास पहाड़ों तक नहीं पहुंच पाएगा...दरअसल पहाड़ों पर कम हो रही जनसंख्या के कारण भी अब सरकारी योजनाएं पहाड़ों तक नहीं पहुंच रही है.. जबकि इसी वजह से पहाड़ों में विधानसभाओं की संख्या भी कम हो रही है जिससे यहां बजट का कम होना भी लाजमी है।


Body:उत्तराखंड में विधानसभाओं के पलायन ने राज्य की तस्वीर को बदल कर रख दिया है... आपको सुनकर हैरानी होगी लेकिन यह सच है कि राज्य में कई जिले अब प्रतिनिधित्व को लेकर संकट के दौर से गुजर रहे हैं... यह बात हम इसलिए कह रहे हैं क्योंकि राज्य में लगातार विधानसभाओं के पलायन का खतरा बढ़ रहा है... विधानसभाओं का पलायन यानी पहाड़ की सीटों का परिसीमन में मैदानी जिलों में जुड़ना है... एक समय था जब उत्तराखंड में पहाड़ी विधानसभाओं का प्रतिनिधित्व विधानसभा सदन में 40 था लेकिन साल 2007 के बाद विधानसभा में पहाड़ से आने वाले विधायकों की संख्या घटकर 36 रह गई... ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि परिसीमन आयोग ने पहाड़ में कम हो रही जनसंख्या के आधार पर सीटों को कम करने की सिफारिश की थी... जिसका उत्तराखंड के विधायकों ने विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटाई। कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय बताते हैं कि परिसीमन आयोग ने प्रदेश में 10 से 16 पहाड़ी विधानसभाओं को खत्म कर मैदानी जिलों में जोड़ने की तैयारी की थी लेकिन आयोग के इस कदम का विरोध होने के बाद कुल 6 सीटें पहाड़ी जिलों की कम कर दी गई। 


बाइट किशोर उपाध्याय पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कांग्रेस


साल 2001 में करीब 950 गांव भूतिया यानी खाली हो गए थे... साल 2019 आते-आते यह आंकड़ा अब 2000 गांव के पास पहुंच गया है। अंदाजा लगाइए कि 13 जिलों वाले प्रदेश में 9 जिले पहाड़ी है लेकिन यहां करीब 30 प्रतिशत जनसंख्या ही पहाड़ों पर रहती है। जबकि मैदानी जिलों की विधानसभाओं की संख्या पहाड़ी जिलों की विधानसभाओं से ज्यादा हो गयी। चिंता इस बात की है कि साल 2026 में एक बार फिर परिसीमन होना है ऐसे में पहाड़ों की कई सीटें और घटने की संभावना है... यदि ऐसा हुआ तो राज्य के कई जिलों में प्रतिनिधित्व का संकट भी खड़ा हो सकता है। 2007 में 6 सीटों को पहाड़ों से कम कर मैदानी जिलों में जोड़ा गया था।


इसमें 2 सीटें पौड़ी,

एक सीट अल्मोड़ा, 

एक सीट बागेश्वर, 

एक सीट चमोली

एक सीट पिथौरागढ़ जिले की कम की गई थी। 


पलायन आयोग की रिपोर्ट से यह साफ है कि अभी पौड़ी और अल्मोड़ा जिले में बेहद तेजी से पलायन हो रहा है यही स्थिति राज्य के दूसरे जिलों की भी बनी हुई है ऐसे में यह तय है कि 2026 में यदि परिसीमन होता है तो पहाड़ की कई दूसरी सीटें भी कम हो जाएंगी। राज्य आंदोलनकारी प्रदीप कुकरेती बताते हैं कि यदि पहाड़ों की सीटें कम होती है तो अलग राज्य की अवधारणा ही खत्म हो जाएगी। 


बाइट प्रदीप कुकरेती राज्य आंदोलनकारी





Conclusion:
उत्तराखंड में पलायन के लिए सबसे बड़े जिम्मेदार यहां की सरकारें और राजनेता रहे हैं, परिसीमन के दौरान जहां नागालैंड असम अरुणाचल मणिपुर और झारखंड में इसका विरोध कर परिसीमन को नहीं होने दिया गया वहीं उत्तराखंड में राजनेता मौन रहे और इसका नतीजा यह हुआ कि पहाड़ी जिलों में परिसीमन के बाद सीटें कम हो गई। शर्मनाक बात यह है कि पौड़ी जैसे जिले में भी 2 सीटों का परिसीमन के कारण कम कर दिया गया यह वह जिला है जहां से अधिकतर मुख्यमंत्री हुए हैं यही नहीं मौजूदा मुख्यमंत्री समेत देश के कई शीर्ष पदों पर इसी जिले के लोग मौजूद हैं। पहाड़ी जिलों के लिए मुश्किल इस बात की है कि विधानसभा में कम होने से पहाड़ों का बजट भी कम हो रहा है और प्रतिनिधित्व भी कम हुआ है। जबकि पहाड़ों में विकास के लिए मैदानी जिलों के मुकाबले काफी ज्यादा बजट की जरूरत होती है। 
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