देहरादून: जोशीमठ शहर में दरारों (cracks in joshimath city) का खौफ हर तरफ दिखाई दे रहा है. मगर यह पहली बार नहीं है, जब ये शहर किसी बड़े संकट को झेल रहा हो. दरअसल, जोशीमठ शहर और इसके आसपास के क्षेत्र ने तबाही की ऐसी कई तस्वीरें देखी हैं. इतिहासकार बताते हैं कि जोशीमठ क्षेत्र का इतिहास आपदाओं से भरा पड़ा है. शायद यही कारण है कि इन्हीं हालातों के बाद मलबे पर बसे शहर की भौगोलिक संरचना बेहद संवेदनशील है. जिसके कारण आज यहां एक बार फिर से आपदा जैसे हालात बने हैं.
जोशीमठ पर पहली बार नहीं आया संकट: जोशीमठ ही नहीं बल्कि हिमालय की पूरी श्रृंखला शैशवकाल की मानी गयी है. यानी हिमालय अपनी युवावस्था में है, जिसकी वजह से पूरे हिमालय में फिलहाल कई तरह के बदलाव देखे जा रहे हैं. खास बात यह है कि इन्हीं बदलावों के कारण तमाम मानव बस्तियों को कई बार प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है. हिमालय में हो रहे इन बदलावों को बड़े निर्माण कार्य और खतरनाक बना रहे हैं. जोशीमठ इसका मौजूदा समय में सबसे बड़ा उदाहरण है. वैसे जोशीमठ क्षेत्र में ऐसा संकट पहली बार नहीं आया है.
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आपदा के कारण कत्यूरी राजा को छोड़ना पड़ा जोशीमठ: इतिहासकार बताते हैं करीब 1000 साल पहले जोशीमठ ऐसे ही प्राकृतिक आपदा (Natural calamities in Joshimath) को झेल चुका है. यही नहीं 1884 और 1970 में भी जोशीमठ के पास ही बड़ी आपदा देखने को मिली थी. इससे पहले कत्यूरी वंश के दौरान भी ऐसी ही आपदा के कारण कत्यूरी राजा काचल देव को जोशीमठ छोड़ना पड़ा था. तब जोशीमठ को कीर्तिपुर के नाम से जाना जाता था.
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जोशीमठ में आपदाओं की लंबी श्रृंखला: माना जाता है कि कत्यूरी राजा को अपनी राजधानी जोशीमठ (Joshimath the capital of Katyuri king) को प्राकृतिक आपदा के चलते छोड़कर बागेश्वर को राजधानी बनाना पड़ा था. साल 1884 में बिरही गाड़ में बाढ़ आने के चलते यहां भारी नुकसान हुआ था. इस दौरान अंग्रेजों ने भूस्खलन के कारण बनी झील को पंचर किया. बावजूद इसके लोगों के घरों और फसल को भारी नुकसान हुआ. साल 1970 में भी जोशीमठ से 20 किलोमीटर दूर गौनाताल के टूटने से झील का निर्माण हुआ और फिर इससे भारी नुकसान हुआ. उधर करीब 1000 साल पहले वैज्ञानिक जोशीमठ में ही एक बड़ी आपदा आने का भी अनुमान लगाते हैं.
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शिलालेख, तामपत्र और पांडुलिपियां बयां करती इतिहास: इतिहासकार बताते हैं कि कत्यूरी राजवंश चौथी शताब्दी से लेकर नवीं शताब्दी तक रहा. उसके बाद शंकराचार्य ने जोशीमठ में एक मठ (Shankaracharya established monastery Joshimath) स्थापित किया. उस समय जोशीमठ को ज्योतिर्मठ कहा जाता था. इस दौरान के शिलालेख ताम्रपत्र और पांडुलिपियां भी कत्यूरी वंश समेत जोशीमठ के इतिहास को बयां करते हैं. 1939 में heim and gansser पर्वतारोहियों ने भी यहां के बारे में लिखते हुए इस क्षेत्र के एमसीटी में होने और भूस्खलन के मलबे में शहर के बसने की बात बताई थी. यही नहीं इसके बाद 1996 में भी गढ़वाल कमिश्नर एमसी मिश्रा की कमेटी ने भी इस क्षेत्र को संवेदनशील बताया था. लेकिन इन सब रिपोर्ट को दरकिनार करते हुए इसके बाद भी बड़े निर्माण कार्यों को इस क्षेत्र में किया गया.
वैज्ञानिक बता चुके हैं कि जोशीमठ के आसपास का क्षेत्र एमसीटी यानी मेन सेंट्रल थ्रस्ट क्षेत्र में है. इसकी वजह से इंडियन और तिब्बतन प्लेट के टकराव के दौरान यहां बड़ी अस्थिरता की स्थिति बनी रहती है. क्षेत्र में समय-समय पर कुछ ऐसी प्राकृतिक घटनाएं भी हुई हैं जो इस क्षेत्र को मानवीय बस्तियों के लिहाज से अस्थिर बनाती रही हैं.
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आपदाओं को लेकर पौराणिक मान्यता: एक तरफ जोशीमठ क्षेत्र में आपदाओं का अपना एक पुराना इतिहास है तो कुछ ऐसी पौराणिक मान्यताएं और कहानियां भी हैं जो इस क्षेत्र के विनाश को लेकर पूर्व में ही लिखी गई हैं. इतिहासकार योगम्बर सिंह बर्थवाल कहते हैं जोशीमठ में कश्मीर के राजा ललितादित्य मुक्तापीड ने नरसिंह मंदिर का निर्माण आठवीं सदी में करवाया था. इस मंदिर में बनी नरसिंह की मूर्ति में उनकी एक भुजा बेहद कमजोर है. यह समय के साथ-साथ और कमजोर होती हुई दिखाई देती है. बताया जाता है कि केदारखंड में भी लिखा गया है कि एक समय ऐसा आएगा जब यह भुजा खुद कमजोर होने के कारण टूट कर गिर जाएगी. जिसके बाद नर और नारायण पर्वत आपस में मिल जाएंगे. जिसके चलते बदरीनाथ धाम का रास्ता बंद हो जाएगा. फिर भगवान बदरी के दर्शन भविष्य बदरी जो कि तपोवन क्षेत्र में स्थित है वहां पर होंगे.
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बता दें जोशीमठ ऐसी जगह पर बसा हुआ है जहां से बदरीनाथ जाने का रास्ता है. यही नहीं हेमकुंड के लिए भी इसी शहर से होकर गुजरना होता है. ऐसी स्थिति में यदि जोशीमठ पर कोई संकट आता है तो यह बदरीनाथ धाम की यात्रा के लिए भी बड़ा संकट होगा.