देहरादून: पहाड़ पर धमाकेदार एंट्री के साथ उतरने वाली आम आदमी पार्टी की चुनाव के परिणामों ने जैसे हवा ही निकाल दी है. हालत यह है कि राज्य में विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद पिछले करीब एक साल में पार्टी को अपना नया खेवनहार ही नहीं मिल पा रहा है. नतीजतन राज्य में प्रदेश अध्यक्ष जैसा अहम पद लंबे समय से खाली पड़ा है.
अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भले ही खुद को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा दिलवाने में कामयाब हुई हो, लेकिन पहाड़ चढ़ने में अरविंद केजरीवाल को असफलता ही हाथ लगी है. उधर विधानसभा चुनाव 2022 में मिली करारी शिकस्त का असर इतना गहरा हुआ है कि करीब एक साल बाद भी पार्टी के जख्म हरे ही हैं. दरअसल, आम आदमी पार्टी को चुनाव में तो मुंह की खानी ही पड़ी साथ ही इसके बाद भी उसके विकेट एक के बाद एक गिरते चले गये. पार्टी के पुराने चेहरों ने साथ छोड़कर एक के बाद एक कई झटके दिये. उत्तराखंड में आम आदमी पार्टी का अब तक का कैसा रहा सफर बिंदुवार समझिए..
तीसरा विकल्प बनकर उभरी थी आप: अरविंद केजरीवाल ने 2020 में जब उत्तराखंड में विधानसभा की सभी सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया तो सोशल मीडिया से लेकर आम लोगों की जुबान तक तीसरे विकल्प की बात होने लगी. राज्य में भाजपा और कांग्रेस बारी-बारी सत्ता में रही है ऐसे में तीसरा विकल्प आम आदमी पार्टी को देखा जाने लगा. सोशल मीडिया पर तो आम आदमी पार्टी ने धमाकेदार एंट्री की और देखते ही देखते लाखों लोग इससे जुड़ने लगे. वह बात अलग है कि आज अपने बुरे हालातों में आम आदमी पार्टी प्रदेश अध्यक्ष तक का चुनाव नहीं कर पा रही.
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उत्तराखंड की जगह पंजाब पर रहा फोकस: राष्ट्रीय पार्टी आम आदमी के पहाड़ न चढ़ पाने की बड़ी वजह उसका पंजाब पर फोकस होना है. दरअसल, आम आदमी पार्टी ने भले ही उत्तराखंड में चुनाव लड़ने का ऐलान किया हो, इसका काफी ज्यादा असर भी राज्य में दिखाई दिया. चुनाव नजदीक आते आते आम आदमी पार्टी ने अपना पूरा फोकस पंजाब पर कर दिया. नतीजा यह रहा कि आम आदमी पार्टी एक भी सीट राज्य में जीत नहीं पाई. अधिकतर प्रत्याशियों को अपनी जमानत भी जब्त करवाई. आम आदमी पार्टी को पंजाब में अप्रत्याशित जीत हासिल की.
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बड़े चेहरे की तलाश भी नहीं हुई पूरी: विधानसभा चुनाव से पहले आम आदमी पार्टी की किसी बड़े चेहरे को राज्य में शामिल करवाने की चाहत भी पूरी नहीं हो पाई. हालांकि विधानसभा चुनावों से पहले प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस के बीच काफी बड़ी संख्या में दलबदल हुआ, लेकिन, कोई भी बड़ा चेहरा आम आदमी पार्टी में शामिल नहीं हुआ. पहली बार चुनाव लड़ने के कारण आम आदमी पार्टी को किसी बड़े चेहरे की दरकार थी, लेकिन यह तलाश आम आदमी पार्टी पूरी नहीं कर पाई. इसका खामियाजा चुनाव में खराब परिणामों के रूप देखने को मिला.
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पहाड़ों की तरफ अरविंद ने नहीं किया रुख: आम आदमी पार्टी भले ही पहाड़ी राज्य में पहली बार चुनाव लड़ने के लिए दम भर्ती हुई दिखाई दी, लेकिन, चुनाव के पहले दिन से ही यह दिखने लगा कि पार्टी पहाड़ों पर पुरजोर तरीके से चुनाव लड़ने के मूड में ही नहीं है. अरविंद केजरीवाल से लेकर मनीष सिसोदिया तक ने अपनी रैलियां और जनसभा को अधिकतर मैदानी जिलों में ही की. इससे सीधा संदेश गया कि अरविंद केजरीवाल पहाड़ों पर पहले ही हार मान चुके हैं. वे मैदानी जिलों में किसान आंदोलन से लेकर केंद्र सरकार के खिलाफ विभिन्न मुद्दों को लेकर चल रहे विवादों का फायदा लेना चाहते हैं. परिणाम यह हुआ कि ना तो पहाड़ की सीटें आप को मिली और न ही आप की छाड़ू मैदान में चल पाई.
उत्तराखंड में दस्तक देने के साथ ही पार्टी को मिला धोखा: आम आदमी पार्टी की दूरदर्शी नीति की कमी कहे या कोई और वजह लेकिन यह साफ है कि उत्तराखंड में आम आदमी पार्टी पर कोई भी नेता विश्वास जता ही नहीं पाया. कर्नल अजय कोठियाल, रविंद्र जुगरान, नवीन पिरसाली, दीपक बाली, अनूप नौटियाल, रिटायर्ड आईएएस सुवर्धन शाह, पूर्व आईपीएस अनंत राम समेत 16 से ज्यादा विधानसभा के प्रत्याशी बाकी दलों में शामिल हुए हैं. इस तरह पार्टी चुनाव के बाद पूरी तरह से टूट गई.
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प्रभारी, सह प्रभारी बदले, नए पुराने कार्यकर्ताओं में जंग: आम आदमी पार्टी ने चुनाव परिणामों के बाद अब प्रभारी से लेकर सह प्रभारी तक को भी बदल दिया है. करारी शिकस्त के बाद भी पार्टी के भीतर कार्यकर्ता और नेता दो भागों में बंटे हुए दिखाई देते हैं. एक हिस्सा उन नेताओं और कार्यकर्ताओं का है जो चुनाव से पहले पार्टी के साथ जुड़े हुए हैं, तो दूसरा खेमा वह है जो चुनाव परिणाम के आने के बाद आम आदमी पार्टी में शामिल हुए हैं. इस तरह पार्टी के भीतर यह जद्दोजहद अरविंद केजरीवाल के लिए भी परेशानी बनी हुई है. इन स्थितियों में प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव करना आम आदमी पार्टी के लिए और भी मुश्किल हो रहा है.
केजरीवाल का दिल्ली मॉडल और फ्री स्कीम नहीं आई काम: अरविंद केजरीवाल जब उत्तराखंड में चुनावी मैदान के लिए उतरे तो उन्होंने जनता के सामने दिल्ली मॉडल को रखा. मुफ्त की योजनाओं पर फोकस किया. इसमें फ्री बिजली, महिलाओं को सम्मान राशि, पूर्व सैनिकों को एक करोड़ तक की सम्मान राशि इसके साथ मुफ्त की यात्रा जैसी योजनाओं का जिक्र किया गया, मगर ये सभी योजनाएं जनता पर कुछ खास छाप नहीं चोड़ पाई. अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली मॉडल का भी जिक्र किया. दिल्ली में अपनी तमाम उपलब्धियों को दोहराते हुए उत्तराखंड में भी उसी तरह की शिक्षा स्वास्थ्य की व्यवस्था करने की बात कही. इन सभी दावों और वादों पर जनता ने विश्वास नहीं किया. नतीजा अरविंद केजरीवाल की अपेक्षाओं के ठीक उलट रहा.
पहाड़ पर खराब परफॉर्मेंस से भविष्य की राह भी हुई कठिन: उत्तराखंड में जोर शोर के साथ चुनाव के लिए उतरने वाली आम आदमी पार्टी ने आगाज तो अच्छा किया लेकिन अंजाम तक नहीं पहुंचा पाई. इसका नतीजा यह हुआ कि बेहद खराब परफॉर्मेंस और अधिकतर प्रत्याशियों के जमानत जब्त बो गई. जिससे भविष्य में भी आम आदमी पार्टी की राह सत्ता तक पहुंचने के लिए और कठिन हो गई है. न केवल तीसरे विकल्प के रूप में आम आदमी पार्टी ने राज्य में लोगों का विश्वास खो दिया है बल्कि पहाड़ में भी आम आदमी पार्टी के खिलाफ अरविंद केजरीवाल के तमाम बयानों का असर दिखाई दिया है. कुल मिलाकर केजरीवाल की रणनीति मैदान तक सीमित रही तो पहाड़ ने इस रणनीति को पूरी तरह नकार दिया है.