देहरादून: उत्तराखंड में भ्रष्टाचार नियंत्रण व पारदर्शिता पर कितने ही बडे़-बड़े दावे किये जा रहे हों लेकिन हकीकत में इसके लिये बने कानूनों का माननीय ही पालन नहीं कर रहे हैं. उत्तराखंड के 71 विधायकों में से मुख्यमंत्री सहित 44 विधायकों ने अपना संपत्ति विवरण ही विधानसभा को नहीं दिया है. यह खुलासा सूचना अधिकार कार्यकर्ता नदीम उद्दीन को विधानसभा के लोक सूचना अधिकारी द्वारा उपलब्ध करायी गयी सूचना से हुआ है. हालांकि, माननीयों को विधानसभा में अपनी संपत्ति का ब्यौरा हर साल देना जरूरी होता है.
सूचना के अधिकार से मिली जानकारी ने सभी को हैरत में डाल दिया है कि आखिरकार विधायक इतनी बड़ी संख्या में अपनी संपत्ति का ब्यौरा विधानसभा को क्यों नहीं दे रहे हैं. यह इतनी बड़ी चौंकाने वाली बात भी नहीं है क्योंकि यह पहली मर्तबा नहीं है कि जब विधायक अपनी संपत्ति का ब्यौरा नहीं दे रहे हैं बल्कि राज्य बनने के बाद से ही विधायक अपनी संपत्ति का ब्यौरा नहीं दे रहे हैं. अब सवाल ये है कि अगर विधायक अपनी संपत्ति का विवरण नहीं देते तो फिर विधानसभा की तरफ से इन पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं होती है? विधानसभा सचिवालय इस पर क्या एक्शन लेता है ?
दरअसल, इसका जवाब उत्तर प्रदेश से ही विधायकों की संपत्ति का ब्यौरा देने से जुड़े वह नियम हैं जो पारदर्शिता के लिए बनाए तो गए लेकिन अधूरे हैं. उत्तर प्रदेश से लिए गए उत्तर प्रदेश मंत्री एवं विधायक आस्तियों एवं दायित्व का प्रकाशन अधिनियम 1975 के तहत मुख्यमंत्री से लेकर विधानसभा अध्यक्ष और मंत्रियों से लेकर विधायकों तक को अपनी संपत्ति का ब्यौरा देना होता है. विधायकों को हर साल जून में अपनी संपत्ति के प्रपत्र विधानसभा सचिवालय में नियमित देने होते हैं.
संपत्ति का ब्यौरा देना स्वैच्छिक: इस अधिनियम के तहत संपत्ति का ब्यौरा देना विधायकों के लिए स्वैच्छिक है. विधायक अगर संपत्ति का ब्यौरा नहीं देता तो अधिनियम के तहत इस में दंड का कोई प्रावधान नहीं है. हालांकि, यह व्यवस्था इसलिए की गई थी कि विधायक का जनता के प्रति पारदर्शिता के रूप में हर साल लोगों को संपत्ति का ब्यौरा मिल सके.
उत्तराखंड में मुख्यमंत्री से लेकर विधायक और मंत्री अपनी संपत्ति का ब्यौरा हर साल नहीं देते. चौंकाने वाली बात यह है कि विधानसभा अध्यक्ष तक ने भी अपनी संपत्ति का ब्यौरा हर साल नहीं दिया है. इस मामले पर विधानसभा सचिव मुकेश सिंघल कहते हैं कि अधिनियम के तहत यह प्रावधान है कि विधायकों को अपनी संपत्ति का ब्यौरा विधानसभा सचिवालय को देना होता है लेकिन यह व्यवस्था स्वैच्छिक है, यानी विधायक पर कोई बाध्यता नहीं है और वह अपनी इच्छा से इस नियम के तहत अपनी संपत्ति का ब्यौरा प्रतिवर्ष दे सकते हैं.
इस मामले में पूर्व विधानसभा सचिव जगदीश चंद्र से भी ईटीवी भारत ने बात की. उन्होंने कहा कि वैसे तो यह परंपरा उत्तर प्रदेश से ली गई है और नैतिकता के आधार पर विधायकों को अपनी संपत्ति का ब्यौरा हर वर्ष देना चाहिए. यह व्यवस्था इसलिए की गई है ताकि जनता की तरफ से अपने प्रतिनिधि की संपत्ति को लेकर जानकारी चाहिए तो हर वर्ष उनको यह जानकारी मिल सके. उन्होंने कहा कि इसमें कोई हर्ज नहीं है क्योंकि मेरी संपत्ति बड़ी है, तो विधायक अपनी संपत्ति को जनता के सामने रख सकता है. कई बार संपत्ति कम भी होती है, जिसका विवरण विधानसभा में विधायक दे सकता है. इसका कोई नुकसान नहीं है और इससे जनप्रतिनिधि जनता के साथ खुद को पारदर्शी बना सकते हैं.
इस मामले पर कांग्रेस में प्रदेश उपाध्यक्ष जोत सिंह बिष्ट कहते हैं कि इस बात में कोई हर्ज नहीं है कि प्रतिनिधि अपनी संपत्ति का ब्यौरा हर साल विधानसभा में देते थे. वैसे भी इनकम टैक्स में हर साल अपनी संपत्ति की जानकारी देनी ही होती है. इसके अलावा चुनाव में भी हर 5 साल में जनप्रतिनिधि को अपनी संपत्ति का ब्यौरा देना होता है, लिहाजा प्रतिनिधि को नैतिकता के आधार पर अपनी संपत्ति का ब्यौरा देना चाहिए.
इस नियम में सबसे बड़ी कमी यह है कि नियम तो बनाया गया है लेकिन इस की बाध्यता नहीं है. बाध्यता ना होने के कारण जनप्रतिनिधि भी इस अधिनियम को कोई खास तवज्जो नहीं देते, जबकि विधानसभा सचिवालय की तरफ से विधायकों को इस पर रिमाइंडर भी कराए जाते हैं. हालांकि, इस मामले में भाजपा के नेता भी मानते हैं कि जनप्रतिनिधियों को अपनी संपत्ति का ब्यौरा देना चाहिए. नैतिकता के आधार पर यह जरूरी है. हालांकि, वे यह भी कहते हैं कि जनप्रतिनिधियों के द्वारा समय-समय पर अपनी संपत्ति का ब्यौरा दिया जाता रहा है.
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नदीम उद्दीन ने मांगी जानकारी: काशीपुर निवासी सूचना अधिकार कार्यकर्ता नदीम उद्दीन ने विधानसभा के लोक सूचना अधिकारी से उत्तराखंड के मंत्रियों विधायकों की संपत्ति विवरण संबंधी सूचना मांगी थी. इसके जवाब में विधानसभा के लोक सूचना अधिकारी/उपसचिव (लेखा) हेम चन्द्र पंत ने अपने पत्रांक 487 दिनांक 22 फरवरी 2022 से संपत्ति विवरण संबंधी सूचना उपलब्ध करायी है. नदीम को मिली जानकारी के मुताबिक, इस बार विधायक बनने के बाद संपत्ति विवरण न देने वाले विधायकों की सूची में 44 विधायकों के नाम शामिल हैं. इसमें 7 मंत्रियों और नेता प्रतिपक्ष का नाम भी शामिल हैं. सूची में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और मंत्री सुबोध उनियाल, अरविन्द पांडे, रेखा आर्य, बंशीधर भगत, यतीश्वरानन्द व बिशन सिंह चुफाल के नाम शामिल हैं. इसके अतिरिक्त नेता प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह का नाम भी इस सूची में शामिल हैं.
जानकारी के मुताबिक, जिन विधायकों ने अपने पूरे कार्यकाल में विधानसभा सचिव को संपत्ति व दायित्वों का विवरण नहीं दिया है. उनमें मंत्रियों के अतिरिक्त प्रीतम सिंह, त्रिवेंद्र सिंह रावत, राजकुमार, सुरेन्द्र सिंह नेगी, मनोज रावत, विनोद कंडारी, विजय सिंह पंवार, मुन्ना सिंह चौहान, सहदेव सिंह पुंडीर, स्व. हरबंस कपूर, आदेश चौहान, सुरेश राठौर, ममता राकेश, देशराज कर्णवाल, फुरकान अहमद, प्रदीप बत्रा, कुंवर प्रणव सिंह चैम्पियन, काजी मो. निजामुद्दीन, संजय गुप्ता, रितु भूषण खंडूड़ी, दलीप सिंह रावत, हरीश सिंह, मीना गंगोला, महेश सिंह नेगी, करन माहरा, गोविंद सिंह कुंजवाल, राम सिंह कैड़ा, दीवान सिंह बिष्ट, आदेश सिंह चौहान, राजकुमार ठुकराल, राजेश शुक्ला, सौरभ बहुगुणा, प्रेम सिंह, मुन्नी देवी शाह, चन्द्र पंत, महेश सिंह जीना, विधायक शामिल हैं.
इसके अलावा 20 विधायक ऐसे भी हैं, जिन्होंने अपनी संपत्ति का प्रथम अनुसूची का विवरण तो दिया है लेकिन द्वितीय अनुसूची का संपत्ति अर्जन और व्ययन का वार्षिक विवरण नहीं दिया है. इन विधायकों में प्रेमचन्द्र अग्रवाल, केदार सिंह रावत, गणेश जोशी, बलवंत सिंह भौर्याल, सतपाल महाराज, विनोद चमोली, हरभजन सिंह चीमा, खजान दास, धन सिंह रावत, चन्दन राम दास, भरत सिंह चौधरी, मदन कौशिक, महेंद्र भट्ट, पूरन सिंह फर्त्याल, कैलाश चन्द्र गहतोड़ी, यशपाल आर्य, प्रीतम सिंह पंवार, रघुनाथ सिंह चौहान, संजीव आर्य, हरक सिंह रावत शामिल हैं.
नदीम ने बताया कि उत्तरप्रदेश मंत्री और विधायक (आस्तियों तथा दायित्वों का प्रकाशन) अधिनियम 1975 की धारा 3 के अनुसार मंत्रियों और विधायकों का नियुक्त या निर्वाचित होने के तीन माह के अंदर विधानसभा सचिव को अपनी संपत्ति दायित्वों का विवरण देने का कर्तव्य है. इसके बाद धारा 4 के अनुसार हर साल 30 जून तक पूर्व वर्ष की संपत्ति प्राप्ति, खर्च व दायित्वों का विवरण देना होता है, जिसे गजट में आम जनता की सूचना के लिये प्रकाशित किया जाना आवश्यक है. उत्तराखंड गठन से ही बड़ी संख्या में विधायक व मंत्री इस कानून का पालन नहीं कर रहे हैं, जबकि पारदर्शिता तथा भ्रष्टाचार नियंत्रण के लिये ऐसा किया जाना जनहित में आवश्यक है.