चमोली: कभी देश दुनिया को पर्यावरण संरक्षण का पाठ पढ़ाने वाला गांव आज खुद प्राकृतिक आपदा का दंश झेल रहा है. हम बात कर रहे हैं चमोली जिले के रैणी गांव की, जहां बीते रविवार ग्लेशियर टूटने से आई आपदा में अबतक 35 लोगों की जान चली गई और 160 से ज्यादा लोगों अभी भी लापता है. पिछले चार दिनों से आपदा क्षेत्र में राहत और बचाव का कार्य चल रहा है.
गौरा देवी ने दिलाई गांव को पहचान
जिस रैणी गांव की पहचान आज आपदा को लेकर हो रही है, कभी इस गांव को देश दुनिया के लोग यहां रहने वाली गौरा देवी के नाम से जानते थे. अगर आप गौरा देवी को नहीं जानते तो शायद चिपको आंदोलन के बारे में जरूर सुना होगा. वही, चिपको आंदोलन जो 70 के दशक में देश दुनिया में पर्यावरण संरक्षण को लेकर गौरा देवी के आंदोलन के रूप में जाना जाता है.
पर्यावरण संरक्षण को लेकर आंदोलन
अपने पेड़ों और पर्यावरण को बचाने के लिए गौरा देवी उस वक्त जंगल माफियाओं से भिड़ गई थीं. उन्होंने 27 महिलाओं के साथ मिलकर न केवल जंगल माफियाओं को यहां से खदेड़ा था, बल्कि उनके अत्याचारों के खिलाफ आवाज बुलंद करते हुए पेड़ों को तबतक अपने सीने से लगा कर रखा, जबतक माफियाओं के हौसले पस्त नहीं हो गए. उस आंदोलन के बाद गौरा देवी न केवल देश बल्कि विदेशों में भी जाना माना नाम हो गईं.
जंगल बचाने के लिए किया चिपको आंदोलन
देश दुनिया में चिपको आंदोलन के नाम से पहचाना जाने वाला रैणी गांव से आज लोग पलायन करने को मजबूर हैं. आपदा आने के बाद रैणी गांव चर्चाओं में है. उत्तराखंड के चमोली जिले में भारत चीन सीमा से लगे रैणी गांव में रविवार को मलबे का सैलाब आया था, जिसने न केवल कई बांधों को अपनी चपेट में लिया, बल्कि अबतक 35 लोगों की जिंदगी भी लील गया. वहीं, सैकड़ों लोग अभी भी लापता बताए जा रहे हैं.
तीन दशक पहले 50 परिवार गांव में रहते थे
इस गांव की आबादी आज से लगभग 30 साल पहले 55 से 50 परिवारों की हुआ करती थी. खूबसूरत पर्वत श्रंखला के बीच बसे इस गांव मे रहने वाले लोग यहां की आबोहवा को कभी भी छोड़ना चाहते थे, लेकिन रविवार को आई आपदा के बाद यहां के लोग बेहद डरे हुए हैं. हालांकि, गांव खाली होने का सिलसिला आज से लगभग 10 साल पहले से ही शुरू हो गया था.
ईटीवी भारत पहुंचा रैणी गांव
हमारी टीम इस गांव में दाखिल हुई तो एक बड़ा सा गेट दिखाई दिया, जिस पर गौरा देवी सहित उन 27 महिलाओं के नाम लिखे थे, जिन्होंने कभी इस गांव और यहां के पेड़ों को बचाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी थी. गांव में पहुंचकर हमने देखा कि आपदा के बाद यहां पूरी तरह से सन्नाटा पसरा हुआ है. लोग या तो अपने घरों को छोड़कर जोशीमठ, गोपेश्वर या निचले इलाकों में जा चुके हैं या फिर अपने आंगन में बैठकर नदी को देखते हुए सोच रहे हैं कि आगे का जीवन कैसे व्यतीत होगा ?
आपदा के बाद गांव में सन्नाटा
आपदा के बाद इस गांव का जायजा लेने जैसे ही हम अंदर दाखिल हुए तो हमारी मुलाकात एक दरबान सिंह से हुई. जब हमने उनसे पूछा कि गांव में इतना सन्नाटा क्यों है तो दरबान ने बताया कि गांव के लोगों में दहशत है. आपदा के बाद से लोगों को लगता है कि कभी भी ग्लेशियर टूटकर उनके गांव की तरफ आ जाएगा. उन्होंने कहा कि यह सब प्रकृति से छेड़छाड़ और अंधाधुंध पेड़ कटाई का नतीजा है. पुरानी बातों को याद करते हुए दरबान ने कहा कि वह लगभग 15 साल के थे, जब चिपको आंदोलन का नेतृत्व कर रही गौरा देवी बीमार हो गई थी और उन्होंने ही कुर्सी के सहारे उन्हें अस्पताल पहुंचाया था. अगर वह आज जिंदा होतीं तो शायद पर्यावरण को संजोकर रखती और आज जो पहाड़ों को काटने का काम हो रहा है, उसे रोकने का काम करतीं.
ये भी पढ़ें: रैणी गांव के लोगों ने देखा तबाही का मंजर, अपनों की तलाश में जुटीं बेबस आंखें
गौरा देवी के घर पहुंचा ईटीवी भारत
हमारी टीम को दरबान सिंह गौरा देवी की घर की तरफ ले जाने लगे. हमने देखा कि उनके घर की छत पर एक बुजुर्ग व्यक्ति खड़े हैं. हमने उनका परिचय पूछा तो उन्होंने खुद को गौरा देवी का बेटा बताया. लगभग 75 साल के चंद्र सिंह ने हमें बहुत ही प्रेम से अपने छत पर ले गए और रविवार को आई आपदा के बारे में बताया. उन्होंने कहा कि जब वह सुबह छत पर बैठे हुए थे, तभी उन्हें तेज आवाज और धुआं जैसा दिखाई दिया. जिसके बाद वह अपने नाती पोतों को लेकर जंगल की तरफ भागना शुरू किया. वह बताते हैं कि उनकी सांस फूल रही थी, लेकिन उन्हें अपने से ज्यादा अपने नाती पोतों की फिक्र थी. लिहाजा 3 दिनों तक वह जंगल में ही बैठे रहे.
गौरा देवी के बेटे ने सुनाया आपदा का मंजर
चंद्र सिंह ने बातों-बातों में कहा कि वह अपने गांव से बेहद प्रेम करते हैं क्योंकि उनकी मां ने इस गांव में रहकर बहुत कार्य किया है. उनका बचपन भी यहीं पर बीता है, लेकिन उस दिन की घटना के बाद से चंद्र सिंह बेहद परेशान हैं. उनका कहना है कि सरकार को चाहिए कि इस गांव को विस्थापित करे. चंद्र सिंह ने कहा कि उन्होंने तो अपना पूरा जीवन काट लिया, लेकिन आने वाले पीढ़ी खतरे के मुहाने पर बैठी हुई है. लिहाजा, गांव के बच्चे और बुजुर्ग अब एक ही मांग कर रहे हैं कि उन्हें यहां से हटाकर किसी सुरक्षित स्थान पर बसाया जाए.
'दादी होती तो शायद आपदा नहीं आती'
कुछ ऐसा ही कहना गौरा देवी के पोते सोहन सिंह का भी है. सोहन कहते हैं कि उन्होंने अपनी दादी को उस वक्त कार्य करते हुए तो नहीं देखा, लेकिन जितना पढ़ा और सुना है, उससे यही मालूम होता है कि उन्होंने पर्यावरण, जल, जंगल और जमीन के लिए ही हमेशा लड़ाई लड़ी है. अगर वह अभी जीवित होती तो यहां पर जिस तरह से पावर प्लांट को बनाया जा रहा है. ब्लास्ट करके सड़कों को चौड़ा किया जा रहा है और गांव को जो नुकसान हो रहा है वह कुछ भी नहीं होता और न ही यह आपदा आती. उन्होंने कहा कि जो हुआ सो हुआ. अब यहां पर कोई भी व्यक्ति अपने आप को सुरक्षित महसूस नहीं कर रहा है, लिहाजा सरकार उन्हें यहां से विस्थापित कर किसी सुरक्षित स्थान पर बसाने का काम करे.
गौरा देवी की साथियों को सता रहा आपदा का डर
गौरा देवी के साथ आंदोलन में कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी रहने वाली तीन महिलाएं आज भी गांव में मौजूद हैं. इन सबसे बात करने के बाद यह साफ हो गया कि गांव के लोग बेहद डरे हुए हैं. चेहरे पर झुर्रियां और जुबां पर उस दिन का मंजर बयां करते हुए वह कहती हैं कि 4 दिनों से घर के दरवाजे बंद नहीं हुए हैं. घर में झाड़ू तक नहीं लगी है. अगर हेलीकॉप्टर घर के ऊपर से गुजरता है तो पूरा शरीर कांपने लगता है. घर के अंदर जाने का जरा भी मन नहीं करता क्योंकि उन्हें लगता है कि दोबारा से वह सैलाब और चीख-पुकार ना सुनाई दे. यह सभी महिलाएं आज भी अपने घर को छोड़कर रोज शाम को घर से ऊपर बनी गौशाला में रहती हैं.
रैणी गांव आबाद रखना सरकार के लिए चुनौती
गांव के तमाम लोगों से बातचीत करने के बाद हमें यही लगा कि लोगों के अंदर जो डर बैठा है, उस डर को निकालना बेहद मुश्किल है. लिहाजा सरकार को भारत-चीन सीमा पर बसे रैणी गांव को हमेशा आबाद रखने के लिए जरूरी और जल्द से जल्द कोई ठोस कदम उठाना होगा.