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देवभूमि की महिलाओं को खास बनाता है ये परिधान, आधुनिकता कर रही क्रेज कम - उत्तराखंड न्यूज

उत्तराखंड की संस्कृति और विरासत को देखने हर साल देश-विदेश से लाखों लोग आते हैं. देवभूमि में कई ऐतिहासिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में यहां के स्थानीय परिधान लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते रहे हैं.

रंगीली-पिछौड़ा महिलाओं को बनाता है खास.
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Published : Mar 25, 2019, 6:14 AM IST

Updated : Mar 25, 2019, 10:58 AM IST

अल्मोड़ा: देवभूमि उत्तराखंड में खास मौकों पर महिलाएं रंगीली-पिछौड़ा पहनती हैं. शादी और अन्य मांगलिक कार्य में इस परिधान को महिलाएं पहनती है. जिसका उत्तराखंड में खास महत्व है. जिसे शादीशुदा महिलाओं के सुहाग का प्रतीक माना जाता है. साथ ही देवभूमि की महिलाओं को ये पारंपरिक परिधान खास बनाता है. इसके बिना हर त्योहार और मांगलिक कार्य अधूरा सा लगता है.

रंगीली-पिछौड़ा महिलाओं को बनाता है खास.


उत्तराखंड की संस्कृति और विरासत को देखने हर साल देश-विदेश से लाखों लोग आते हैं. देवभूमि में कई ऐतिहासिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में यहां के स्थानीय परिधान लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते रहे हैं. पर्वतीय अंचलों में रंगीली- पिछौड़ा इस हद तक रचा बसा है कि किसी भी मांगलिक अवसर पर घर की महिलाएं इसे अनिवार्य रूप से पहन कर ही रस्म पूरी करती हैं. रंगीली- पिछौड़ा हल्के फैब्रिक और एक विशेष डिजाईन के प्रिंट का होता है. पिछौड़े के पारंपरिक डिजाईन को स्थानीय भाषा में रंग्वाली कहा जाता है.

इसके खास महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि विवाह, नामकरण, त्योहार, पूजन-अर्चन जैसे मांगलिक अवसरों पर बिना किसी बंधन के विवाहित महिलायें इसका प्रयोग करती हैं. साथ ही सुहागिन महिला की तो अन्तिम यात्रा में भी उस पर पिछौड़ा जरूर डाला जाता है. वहीं इस परिधान पर भी अब आधुनिकता की मार पड़ रही है. उत्तराखंड की शान कहे जाने वाले रंगीली-पिछौड़ी के पहनावे का क्रेज युवा पीढ़ी में कम होता जा रहा है. ऐसे में जरूरत है तो इस पारंपरिक परिधान के अस्तित्व को बनाए रखने की.

अल्मोड़ा: देवभूमि उत्तराखंड में खास मौकों पर महिलाएं रंगीली-पिछौड़ा पहनती हैं. शादी और अन्य मांगलिक कार्य में इस परिधान को महिलाएं पहनती है. जिसका उत्तराखंड में खास महत्व है. जिसे शादीशुदा महिलाओं के सुहाग का प्रतीक माना जाता है. साथ ही देवभूमि की महिलाओं को ये पारंपरिक परिधान खास बनाता है. इसके बिना हर त्योहार और मांगलिक कार्य अधूरा सा लगता है.

रंगीली-पिछौड़ा महिलाओं को बनाता है खास.


उत्तराखंड की संस्कृति और विरासत को देखने हर साल देश-विदेश से लाखों लोग आते हैं. देवभूमि में कई ऐतिहासिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में यहां के स्थानीय परिधान लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते रहे हैं. पर्वतीय अंचलों में रंगीली- पिछौड़ा इस हद तक रचा बसा है कि किसी भी मांगलिक अवसर पर घर की महिलाएं इसे अनिवार्य रूप से पहन कर ही रस्म पूरी करती हैं. रंगीली- पिछौड़ा हल्के फैब्रिक और एक विशेष डिजाईन के प्रिंट का होता है. पिछौड़े के पारंपरिक डिजाईन को स्थानीय भाषा में रंग्वाली कहा जाता है.

इसके खास महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि विवाह, नामकरण, त्योहार, पूजन-अर्चन जैसे मांगलिक अवसरों पर बिना किसी बंधन के विवाहित महिलायें इसका प्रयोग करती हैं. साथ ही सुहागिन महिला की तो अन्तिम यात्रा में भी उस पर पिछौड़ा जरूर डाला जाता है. वहीं इस परिधान पर भी अब आधुनिकता की मार पड़ रही है. उत्तराखंड की शान कहे जाने वाले रंगीली-पिछौड़ी के पहनावे का क्रेज युवा पीढ़ी में कम होता जा रहा है. ऐसे में जरूरत है तो इस पारंपरिक परिधान के अस्तित्व को बनाए रखने की.

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देवभूमि की महिलाओं को खास बनता है ये परिधान,  आधुनिकता कर रही क्रेज कम

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अल्मोड़ा: देवभूमि उत्तराखंड में खास मौकों पर महिलाएं रंगीली-पिछौड़ा पहनती हैं. शादी और अन्य मांगलिक कार्य में इस परिधान को महिलाएं पहनती है. जिसका उत्तराखंड में खास महत्व है. जिसे शादीशुदा महिलाओं के सुहाग का प्रतीक माना जाता है. साथ ही देवभूमि की महिलाओं को ये पारंपरिक परिधान खास बनाता है. इसके बिना हर त्योहार और मांगलिक कार्य अधूरा सा लगता है.

उत्तराखंड की संस्कृति और विरासत को देखने हर साल देश-विदेश से लाखों लोग आते हैं. देवभूमि में कई ऐतिहासिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में यहां के स्थानीय परिधान लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते रहे हैं.  पर्वतीय अंचलों में रंगीली- पिछौड़ा इस हद तक रचा बसा है कि किसी भी मांगलिक अवसर पर घर की महिलाएं इसे अनिवार्य रूप से पहन कर ही रस्म पूरी करती हैं.  रंगीली- पिछौड़ा हल्के फैब्रिक और एक विशेष डिजाईन के प्रिंट का होता है. पिछौड़े के पारंपरिक डिजाईन को स्थानीय भाषा में रंग्वाली कहा जाता है. 

इसके खास महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि विवाह, नामकरण, त्योहार, पूजन-अर्चन जैसे मांगलिक अवसरों पर बिना किसी बंधन के विवाहित महिलायें इसका प्रयोग करती हैं. साथ ही सुहागिन महिला की तो अन्तिम यात्रा में भी उस पर पिछौड़ा जरूर डाला जाता है. वहीं इस परिधान पर भी अब आधुनिकता की मार पड़ रही है. उत्तराखंड की शान कहे जाने वाले रंगीली-पिछौड़ी के पहनावे का क्रेज युवा पीढ़ी में कम होता जा रहा है. ऐसे में जरूरत है तो इस पारंपरिक परिधान के अस्तित्व को बनाए रखने की.

 


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Last Updated : Mar 25, 2019, 10:58 AM IST
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